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________________ आचारदिनकर (भाग-२) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान !! अठारहवाँ उदय !! क्षुल्लकत्व विधि तीन वर्ष तक त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक ब्रह्मव्रत का पालन करने वाला, वैराग्यभाव से परिपूर्ण एवं दृढ़तापूर्वक शील का पालन करने वाला, यतिदीक्षा ग्रहण करने को उत्सुक, ब्रह्मचारी क्षुल्लकदीक्षा के लिए योग्य होता है। अतः कालक्रम से परिपक्व होने के कारण उसके लिए संयम का पालन तथा ब्रह्मचर्य महाव्रत एवं अन्य चार महाव्रतों का पालन करना सरल होता है। अरिहंत परमात्मा भी प्रव्रज्या हेतु उत्सुक होने पर भी अवरोध बिना सांवत्सरिक दान देते हैं। उसकी तुलना संवत्सर या वर्षभर महाव्रत के पालन से की जाती है। ब्रह्मचर्यव्रत के पालन के बाद साधक को क्षुल्लकदीक्षा दी जाती है। वह इस प्रकार है - "त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करने पर तीसरे वर्ष के अन्त में व्यक्ति क्षुल्लकत्व को प्राप्त करता है।" जिस प्रकार पूर्व में बताया गया है, उसी प्रकार गुणों से युक्त गुरु के पास जाकर दीक्षा के उपयुक्त तिथि, वार, नक्षत्र एवं लग्न के आने पर वह सिर मुण्डित करवाकर तथा स्नान करके मात्र शिखा एवं उपवीत धारण करे। फिर मुखवस्त्रिका लेकर ईर्यापथिकी की क्रियारूप आलोचना करे। तत्पश्चात् आसन पर विराजित गुरु के समीप खमासमणा देकर कहे - "हे भगवन् ! आपकी इच्छा हो, तो आप मुझे एक अवधि विशेष के लिए पंचमहाव्रतों को आरोपित करवाने की अनुमति प्रदान करे" गुरु कहे - “मैं अनुमति देता हूँ।" फिर क्षुल्लकदीक्षा के लिए व्रतारोपण के समान ही नंदी, वासक्षेप, चैत्यवंदन, वंदन, कायोत्सर्ग आदि की सभी विधि करे। इसके बाद दण्डक उच्चारण अर्थात् महाव्रत ग्रहण करने के लिए गुरु को खमासमणापूर्वक वंदन कर निवेदन करे - "हे भगवन् ! आप मुझे एक अवधि विशेष के लिए पंचमहाव्रत के ग्रहण हेतु सम्यक् रूप से अनुमति प्रदान करे" तब गुरु कहे - "मैं सम्यक् रूप से अनुमति देता हूँ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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