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आचारदिनकर (भाग - २)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान को ग्रहण करता हूँ, ( अतः ) पापवाली प्रवृत्ति को प्रतिज्ञापूर्वक छोड़ता हूँ। जब तक मैं इस नियम का सेवन ( पालन) करता रहूँगा, तब तक मन, वाणी और शरीर इन तीन योगों से पाप व्यापार को न करूंगा, न कराउंगा। हे भगवन् ! पूर्वकृत् पापवाली प्रवृत्तियों से मैं निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, उसकी भर्त्सना करता हूँ एवं उसके प्रति रही हुई आसक्ति का त्याग करता हूँ । इस नियम का पालन करते हुए सर्व प्रकार से मैथुन का त्याग करता हूँ, दो करण, अर्थात् स्वयं करना तथा अन्य से करवाना एवं तीन योग, अर्थात् मन, वचन तथा काया से न करूंगा शेष पूर्ववत् बोले । " संसार - सागर को पार करने वाला हो", यह कहकर गुरु संघ सहित वासक्षेप डाले। फिर आसन पर विराजित गुरु सामने स्थित ब्रह्मचारी को निम्न उद्देश दे - स्त्री, नपुंसक, पशु, वेश्या आदि के सान्निध्य में रहने का तथा स्त्रियों के अंगोपांग को ध्यानपूर्वक देखने का त्याग करना । रागसहित स्त्रीकथा का त्याग करना, परित्यक्त किए गए कामभोगों की स्मृति का त्याग करना । स्त्री के रम्य अंग को सुसज्जित करने एवं स्व-अंग के श्रृंगार का त्याग करना । विवाहोत्सव के भोजन का त्याग कर ब्रह्मचर्यव्रत से भावित रहना । स्त्रियों से राग- भावपूर्वक संभाषण, अर्थात् बातचीत नहीं करना । गृहस्थ के घर में सोना एवं बैठना आदि कार्य नहीं करना । अन्य की निन्दा और उपहास करने की प्रवृत्ति से सदैव दूर रहना । स्वाध्याय को छोड़कर हमेशा मौन को धारण करना। अन्य घरों में भोजन करते समय प्राय: सचित्त का त्याग करना । हमेशा कौपीन ( लंगोटी) एवं मुंजमेखला ( कटिसूत्र ) को धारण करना। अंग-संस्कार नहीं करना और आभूषण आदि भी धारण नहीं करना । एक उत्तरीय वस्त्र को छोड़कर दूसरा वस्त्र धारण नहीं करना । मौनपूर्वक दोनों समय " आवश्यक क्रिया" करना, स्त्री के संग का त्याग करना तथा तीन वर्ष तक त्रिकाल परमात्मा की पूजा करना ।
ज्ञातव्य है कि इस व्रत में प्राय: सचित्त का सम्पूर्ण रूप से त्याग नहीं होता है, केवल ब्रह्मचर्यव्रत को धारण किया जाता है । उपर्युक्त उद्देश देकर गुरु वासक्षेप प्रदान करे। फिर शिखा, सूत्र, लंगोटी एवं वस्त्र धारण करते हुए मौन तथा शुभ ध्यान में निमग्न, वह ब्रह्मचारी तीन वर्ष तक विचरण करता है। तीन वर्ष तक त्रिकरण
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