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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 192 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान रखे। कुछ आचार्यों के मतानुसार जिनकल्पी, स्थविरकल्पी एवं साध्वी आदि के अनुरूप क्रमशः बारह, चौदह एवं पच्चीस उपकरण स्थापित करना चाहिए। सोना, चाँदी, मूंगा, मोती और पाँचवा रजपट्ट - ये पाँच रत्न बताए गए हैं। जिस नक्षत्र में साधु के जीव ने प्रयाण किया है - उस नक्षत्र का विचार करें "विशाखा, रोहिणी, उत्तरात्रय और पुनर्वसु - ये नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त के कहे गए हैं। इन नक्षत्रों में मृत साधु के शव के पास दो कुश के पुतले बनाकर रखें एवं उनके हाथं में लघु रजोहरण एवं मुखबस्त्रिका भी रखें। मृतक साधु के बाएँ हाथ की तरफ उसके स्वयं के उपकरणों एवं कुशमय पुतलों को डोरी से बाँध दें, ऐसा नहीं करने से अन्य दो साधुजनों पर विपत्ति आती है - ऐसा माना जाता है। अश्विनी, कृत्तिका, पुष्य, मृगशीर्ष, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा, पूर्वाषाढ़ा, मूल, श्रवण एवं रेवती - ये पन्द्रह नक्षत्र भी अशुभ ही हैं। विचक्षणजन इनका काल तीस मुहूर्त का बताते हैं। इन नक्षत्रों में भी पूर्व की भाँति ही एक कुश का पुतला बनाए। ऐसा नहीं करने पर अन्य किसी एक मुनि का विनाश होता है - ऐसी मान्यता है। आर्द्रा, आश्लेषा, शतभिषा, भरणी, स्वाति, मृगशीर्ष - इन पन्द्रह मुहूतों के नक्षत्रों में मृत्यु होने पर कुछ न करे - यह नक्षत्र का विधान है। चार कंधों पर उठाई जाने वाली पालकी बनाकर उसके बाद यह विधि करे। वे सब बाँई कांख के नीचे करके चादर को विपरीत रूप से ओढ़े तथा रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका आदि भी विपरीत रूप से ग्रहण करे, अर्थात् कटि के भाग में रखी जाने वाली दसियों को आगे की तरफ तथा दण्ड को पीछे की तरफ धारण करे। रजोहरण बाएँ हाथ की अपेक्षा दाएँ हाथ में एवं मुखवस्त्रिका भी दाएँ हाथ की अपेक्षा बाएँ हाथ में पकड़कर और छोटे साधु को आगे करके विपरीत विधि से शक्रस्तव आदि सूत्र बोलें (उल्टा चैत्यवंदन करें)। पहले जयवीयरायसूत्र बोलें, फिर शांतिस्तव, उसके बाद शक्रस्तव तत्पश्चात् इरियावही फिर उसके बाद पुनः सामान्य विधि के अनुसार चादर ओढ़कर तथा ज्येष्ठ साधुओं को आगे करके, सम्यक् प्रकार से रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका को धारण करके इरियावही करें। तत्पश्चात् क्रम से शक्रस्तव, शान्तिस्तव एवं जयवीयराय तक बोलकर चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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