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आचारदिनकर (भाग - २)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान
"केश कायोत्सर्ग करना चाहता हूँ ।" अनुमति मिलने पर शिष्य कहें का लोच करते समय, कष्ट को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं किया हो, चीखा हो, कर्कश वचन कहा हो, तो उन दुष्कृतों का प्रायश्चित करने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ ।" यह कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिंतन करे । कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप में नमस्कारमंत्र बोले। तत्पश्चात् लोच कराने वाला साधु विधिपूर्वक साधुओं को वंदन करे । जिनकल्पी साधु लोच के दिन उपवास करे तथा स्थविरकल्पी साधु लोच के दिन आयम्बिल या शक्ति के अनुसार अन्य कोई प्रत्याख्यान करें लोच की विधि है ।
यह
सामान्यतः कुछ मुनिजन वर्षाकाल के पूर्व वस्त्र धोते हैं, यह सुना जाता है। इस कथन की पुष्टि प्रवचनसारोद्धार से भी होती है वर्षाऋतु के आने से पूर्व ही मुनि को यतनापूर्वक संपूर्ण उपधि का प्रक्षालन कर लेना चाहिए । यदि जल की सुविधा न हो, तो पात्र निर्योग तो अवश्य धोने चाहिए । आचार्य और ग्लान मुनि के मलिन वस्त्र बारंबार धोना चाहिए; कारण मलिन वस्त्र से गुरु की निंदा न हो और ग्लान को अरूचि या अजीर्ण न हो । सभी साधु ग्रीष्मऋतु के अन्त में सभी वस्त्रों को धोते हैं, वर्षा ऋतु में विशेष रूप से उपधि का प्रक्षालन नहीं करते; किन्तु आचार्य, उपाध्याय, ग्लान एवं भगवान् (स्थापनाचार्य) के वस्त्र को बारंबार धोते हैं। तीन प्रहर से अधिक हो जाने पर प्रासुक तिल का पानी, तुष का पानी, यव का पानी और गर्म पानी वर्षाऋतु में नहीं कल्पता है अर्थात् वह सचित्त हो जाता है । जैसा कि आगम में कहा गया है कि तीन उबालयुक्त गर्म जल या अन्य प्रकार से प्रासुक किया हुआ जल सामान्यतः वर्षाऋतु में तीन प्रहर तक मुनियों को कल्प्य है, किन्तु ग्लान आदि के लिए अधिक समय तक भी रखा जा सकता है । उष्णकाल में पाँच प्रहर के पश्चात्, शीतकाल में चार प्रहर के पश्चात् तथा वर्षाकाल में तीन प्रहर के पश्चात् प्रासुक जल भी पुनः सचित्त होकर मुनि के लिए अकल्प्य या अग्राह्य बन जाता है । इस प्रकार श्रेष्ठ मुनिजन इस चर्या का वहन करते हुए वर्षाकाल को पूर्ण करके शरदऋतु को प्राप्त करते हैं - यह वर्षाऋतु की चर्या है ।
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