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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 182 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान उपनयन, प्रव्रज्या, आचार्य पदस्थापना एवं पर्युषण आदि में नियम से लोच करना चाहिए। उस समय यदि और नक्षत्र नहीं हों, तो भी कार्य की उत्सुकता में कहे गए नक्षत्रों से भिन्न नक्षत्रों में भी लोचादि क्षौरकर्म कर सकते हैं। यह केशलोच की क्रिया कुछ मुनिजन भाद्रपद में, पौष मास में एवं वैशाख मास में, अर्थात् तीनों चातुर्मासों में करते हैं। कुछ मुनिजन भाद्रमास और फाल्गुनमास अर्थात् छः-छः मास में करते हैं एवं कुछ मुनिजन भाद्रपद में पर्युषण पर्व के पूर्व, अर्थात् वर्ष में एक बार केशलोच करते हैं। अब केशलोच की विधि वर्णित है - कार्य की उत्सुकता में वर्जित नक्षत्रों को छोड़कर तथा लोच के लिए बताए गए क्षौर नक्षत्रों, शुभ नक्षत्रों, शुभ तिथि, वार और लोच कराने वाले मुनि का चंद्रबल देखना चाहिए। दृढ़ सत्त्वशाली मुनि गुरु के आगे गमनागमन के दोषों की आलोचना करके एवं उन्हें खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे - "हे भगवन् ! मैं लोच की मुहँपत्ति का प्रतिलेखन करता हूँ।" तत्पश्चात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके पुनः खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे -"हे भगवन् ! आपकी इच्छा हो, तो मैं लोच करूं या कराऊं ?" गुरु कहे - "करो, मैं आज्ञा देता हूँ।" तत्पश्चात् लोच कराने वाला मुनि विनयपूर्वक साधुओं को लोच करने के लिए कहे। लोच के बाद मुनि नमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करके अर्थात् ईर्यावही करके चैत्यवंदन करे। तत्पश्चात् गुरु के समक्ष मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्तवन्दन सहित खमासमणासूत्र से वन्दन करके कहे-"हे भगवन् ! मैंने लोच कर लिया है। अब आज्ञा दें, मैं किस का स्वाध्याय करूं ?" गुरु कहे -"वंदन करके स्वाध्याय करो।" पुनः शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहता है-"मैंने केश का लोच कर लिया है। मैं इस संबंध में आपकी सम्मति चाहता हूँ।" गुरु कहे "तुमने दुष्कर कार्य किया है। इंगितमरण तो इससे भी अधिक दुष्कर है।" शिष्य पुनः कहता है - "आपके द्वारा जो प्रवेदित किया गया है, उसे मैं अन्य साधुओं को प्रवेदित करूं ?" गुरु कहे - "गुरु-परम्परा से प्राप्त सूत्र, अर्थ एवं सूत्रार्थ से महाव्रतरूप गुणों का वर्द्धन करते हुए संसार-सागर को प्राप्त करने वाले होओ।" तत्पश्चात् शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे -“यदि आप अनुमति दें, तो मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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