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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 136 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान तत्पर अप्रमत्तजनों को संसार सुख प्रदान करने वाला तथा मोक्ष सुख प्रदान करने वाला है । ( हे सम्यग्दर्शन ! तू परहित करने में सदैव तत्पर अप्रमत्तजनों को प्रमोद देता है और इस प्रकार तू संसार का भी सुख देता है और मोक्ष का भी सुख देता है ।) सिद्धांत - ग्रंथों में जैसा कहा गया है, उसके अनुरूप अपनी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सम्यग्दर्शन का सदैव पालन करो। " अब नवीनाचार्य के शिष्यों को हित शिक्षा देते हैं “यत्नापूर्वक तुम सब संसाररूपी भयंकर (गहन) अटवी में सिद्धपुर के सार्थवाह रूप गुरु का क्षणभर के लिए भी त्याग मत करना। इनके ज्ञानराशि से युक्त वचनों के प्रतिकूल आचरण मत करना । इस प्रकार तुम्हारा यह गृहत्याग सफल होगा। जो इस लोक में परम गुरु, अर्थात् परमात्मा या आचार्य की आज्ञा का भंग करता है, निश्चित रूप से उसका इहलोक और परलोक दोनों विफल होते हैं और इससे “दुष्टा कुलवधू के न्यायानुसार " तुम्हारे कार्यों की निर्भत्सना होगी। जीवनपर्यन्त गुरु के पादमूल का कभी भी त्याग मत करना। इस प्रकार ज्ञान - दर्शन एवं चारित्र में स्थित गुरु के सहभागी होना। निश्चित ही वे धन्य है, जो यावज्जीवन गुरुकुल का त्याग नहीं करते हैं। जो आचार्य के वचन का अनुसरण करता है, वह आर्या चंदना एवं मृगावती के समान परम लक्ष्य को प्राप्त करता है ।" इस हितशिक्षा के बाद साधुवर्ग नूतन आचार्य को उपकरण एवं पुस्तक आदि भेंट करते हैं। श्रावक दस दिन तक संघपूजा आदि महोत्सव एवं अष्टान्हिकास्नात्र करते है । गुरु हितशिक्षा देकर शेष शिष्यों को नूतन आचार्य की उपासना एवं विनय करने के लिए अनुशासित करता है । फिर दोनों ही आचार्य " अनुयोग के विसर्जनार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ " - ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे तथा कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोलें। फिर पुनः “काल के प्रतिक्रमणार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप में चतुर्विंशतिस्तव बोलें। फिर नूतनाचार्य खमासमणासूत्र से गुरु (पूर्वाचार्य) को वंदन करके कहे - "हे भगवन् ! अनुयोग निरूद्ध, Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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