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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान // बाईसवाँ उदय // वाचना-ग्रहण की विधि
वाचना-ग्रहण की विधि में - गुरुभक्त, क्षमावान्, कृतयोगी, निरोग, प्रज्ञावान्, शुद्ध बुद्धि के आठ प्रकार के गुणों से युक्त, विनीत, शास्त्र का रागी, निद्रा-आलस्य आदि को जीतने वाला, विषयेच्छा एवं सभी अवरोधों का त्यागी, यति के आचार को जानने वाला तथा हमेशा ईर्ष्या आदि से रहित मन वाला - इस प्रकार का मुनि सिद्धान्त के अध्ययन के लिए अति उत्तम पात्र माना गया है। उपर्युक्त लक्षण वाचना ग्रहण करने योग्य मुनि के लक्षण हैं। गुरु के लक्षण पूर्व में योगोद्वहन नामक अधिकार में कहे गए अनुसार ही हैं। अध्ययन (वाचना) सामग्री के लक्षण इस प्रकार हैं :
"योगोद्वहन के योग्य सहायक तथा योग के लिए उपयुक्त समय (काल), प्रचुर मात्रा में पुस्तक-संपत्ति, अर्थात् ज्ञान-भंडार; आहार-पानी की सुलभता, कालग्रहण, अध्ययन के योग्य विघ्नरहित क्षेत्र, लेखनी, स्याही का पात्र (दवात), शुभशय्या एवं आसन।" यह वाचना-सामग्री का विवरण है। इस प्रकार योग की विधि में दृढ़ योग वाला मुनि विधि के अनुसार प्रभातकाल ग्रहण कर, स्वाध्याय का प्रस्थान करे। फिर गुरु के पास जाकर गमनागमन क्रिया में लगे दोषों का प्रतिक्रमण करे, अर्थात् उनकी आलोचना करे। फिर अनुयोग की मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करके गुरु को द्वादशावर्त वन्दन करे। उसके बाद खमासमणासूत्रपूर्वक गुरु को वंदन कर निवेदन करे - “हे भगवन् ! अनुयोग (नंदी आदि आगमों का सूत्र-अर्थ प्रतिपादन करने की विधि), अर्थात् अध्ययन का कार्य आरंभ कराएं।" गुरु कहे - “मैं आरम्भ करवाता हूँ।" पुनः शिष्य खमासमणापूर्वक वंदन कर कहे - "अनुयोग के आरम्भार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।" यह कहकर एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर वह कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का चिंतन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके नमस्कारमंत्र बोले। फिर गुरु के आगे सुखासन में बैठकर, मुख को मुखवस्त्रिका से अलंकृत कर, पुस्तक देखकर या गुरु के वचनों का अनुकरण कर गीत आदि दोष
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