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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान उसी दिन चरम उद्देशक मुखाग्र कर ले, तो उसे उसी दिन उसकी अनुज्ञा दे दे, अन्यथा दूसरे दिन मुखाग्र कर लेने पर आयम्बिल के द्वारा उसकी अनुज्ञा दे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ एक-एक बार करे।
इस प्रकार पन्द्रह दिन एवं पन्द्रह काल के व्यतीत होने पर षष्ठं योग लगता है। षष्ठं योग में क्रमशः पाँच दिन नीवि करे, तत्पश्चात् छठें दिन आयम्बिल करे। इसके बाद छ: दिन नीवि करे तथा सातवें दिन आयम्बिल करे। पुनः इसी प्रकार पाँच दिन नीवि करे तथा छटें दिन आयम्बिल करे। गोशालशतक के उद्देश के पूर्व तक, अर्थात् पन्द्रहवें दिन से लेकर चौंतीसवें दिन तक षष्टमयोग किया जाता हैं।
सोलहवें दिन :- सोलहवें दिन योगवाही एक काल का ग्रहण करे तथा तीसरे और चौथे उद्देशक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ छः-छ: बार करे।
सत्रहवें दिन :- सत्रहवें दिन योगवाही एक काल का ग्रहण करे तथा पाँचवें और छटे उद्देशक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ छ:-छ: बार करे।
अठारहवें दिन :- अठारहवें दिन योगवाही एक काल का ग्रहण करे तथा सातवें और आठवें उद्देशक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ छः-छ: बार करे।
उन्नीसवें दिन :- उन्नीसवें दिन योगवाही एक काल का ग्रहण करे तथा नवें और दसवें उद्देशक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। इसके साथ ही तीसरे शतक के समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया भी करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ आठ-आठ बार करे। यहाँ तृतीय शतक के योग में भी पाँच दत्तियाँ होती हैं।
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