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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान की विधि करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ तीन-तीन बार करे।
चौदहवें दिन :- चौदहवें दिन योगवाही नीवि-तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा दसवें अध्ययन के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की विधि करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ तीन-तीन बार करे।
पन्द्रहवें दिन :- पन्द्रहवें दिन योगवाही आयम्बिल-तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा श्रुतस्कन्ध के समुद्देश की विधि करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ एक-एक बार करे।
सोलहवें दिन :- सोलहवें दिन योगवाही आयम्बिल-तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा श्रुतस्कन्ध के अनुज्ञा की नंदीविधि करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ एक-एक बार करे।
सत्रहवें दिन :- सत्रहवें दिन योगवाही आयम्बिल-तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा स्थानांगसूत्र के समुद्देश की विधि करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ एक-एक बार करे।
अठारहवें दिन :- अठारहवें दिन योगवाही आयम्बिल-तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा स्थानांगसूत्र के अनुज्ञा की नंदीविधि करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ एक-एक बार
करे।
इस प्रकार स्थानांगसूत्र के योगोद्वहन में कुल अठारह दिन एवं तीन नंदी होती हैं। यह कालिक अनागाढ़ योग है। स्थानांगसूत्र के यंत्र का न्यास इस प्रकार है :
| ठाणांग श्रुतस्कन्ध-१, काल-१८, दिन-१८, नंदी-३ (तीसरा अंग) ।
काल
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अध्ययन
अं.उ.
म.
उद्देशक
०
१/२ | ३/४ | १/२ | ३/४ | १/२
३/४
१/२ | ३
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