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________________ Xxxii एक साथ प्रतिपादन करने वाला कोई शब्द नहीं है। अत: विरुद्ध धर्मों की एक साथ अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण अवक्तव्या भंग की योजना की गई है, किन्तु अवक्तव्य का यह अर्थ उसका एकमात्र अर्थ नहीं है। यदि हम अवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डॉ० पद्मराजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया है(१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व कारण की खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्त्व को न सत् और न असत् कहकर विवेचित करता है, यहाँ दोनों पक्षों का निषेध है। (२) दुसरा औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण, जिसमें सत्, असत् आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है, जैस "तदेजति तन्नेजति'' "अणोरणीयान् महतो महीयान्' आदि। यहाँ दोनों पक्षों की स्वीकृति है। (३) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य या अनिर्वचनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है उसे “यतो वाचो निवर्तन्ते', यद्वाचानभ्युदितं, नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्या: आदि। बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की चतुष्कोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की धारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। (४) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है। सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं - (१) सत् व असत् दोनों का निषेध करना। (२) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना। (३) सत् -असत्, सत-असत् (उभय) और न सत् न असत् (अनुभय) चारों का निषेध करना। (४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य मानना, अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभव में तो आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता। (५) सत् और असत् दोनों को युगपत् रूप से स्वीकार करना, किन्तु उसके युगपत्कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण अवक्तव्य कहना। (६) वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001691
Book TitleAnekantavada Syadvada aur Saptbhangi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Epistemology, L000, & L005
File Size4 MB
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