________________
XXX
भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके आकारिक स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में उसे पुनर्गठित करेंगे तो जैन न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि द्वितीय एवं तृतीय भंगों की कथन विधि के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। अत: यहाँ द्वितीय भंग के विविध स्वरूपों पर थोड़ा विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। मेरी दृष्टि में द्वितीय भंग के निम्न चार रूप हो सकते हैं:
सांकेतिक रूप (१) प्रथम भंग - अ
द्वितीय भंग-अ
उ वि है उ नहीं है
(२) प्रथम भंग - अ- उ वि है
द्वितीय भंग-अरे ऊ~वि है
उदाहरण प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान किया गया है। अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। जैसे : द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्यायदष्टि से घड़ा नित्य नहीं है। (२) प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना है। जैसे- द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है पर्यायदृष्टि से घड़ा अनित्य है। (३) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना। जैसे - रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली
(३) प्रथम भंग - अ उ वि है
द्वितीय भंग-अउ ~वि नहीं है
रंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है।
अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतन
अग
अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अचेतन नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org