SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार दिनकर 133 पुनः परमेष्ठीमंत्र पढ़कर कहे "जो मैंने यहाँ इस भव में मन, वचन, काया से दुष्चिंतन किया हो, बुरा कहा हो, बुरा किया हो, उसकी मैं निंदा करता हूँ, गर्हा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्व का त्याग करता हूँ । जो मैंने यहाँ इस भव में मन, वचन, काया से शुभ चिंतन किया है, शुभ वचन कहें हैं तथा जो श्रेष्ठ प्रवृत्ति की है, उस सुकृत की मैं अनुमोदना करता हूँ। षोडश संस्कार इसके पश्चात् यदि पहले सम्यक्त्व व्रत का आरोपण किया हुआ हो, तो भी पुन: इस क्रिया के अन्त में सम्यक्त्व - व्रत का आरोपण करे । जिसको पूर्व में श्रावक के व्रतों का आरोपण किया हुआ है, उसको पहले उन व्रतों के एक सौ चौबीस अतिचारों की आलोचना करनी होती है। इन अतिचारों का वर्णन आवश्यक विधि के प्रसंग में होगा और उनकी आलोचना की विधि प्रायश्चित्त - विधि के प्रसंग में वर्णित की जाएगी। फिर गुरू पूरे संघ के साथ ग्लान के सिर पर वासक्षेप एवं अक्षत आदि डाले। फिर क्षमापना करे। संलेखना लेने वाला ग्लान खमासमणासूत्र एवं परमेष्ठीमंत्र का उच्चारण करके कहे "आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक कुल एवं गण के प्रति मैंने जो कुछ कषाय किए हों, उन सबकी मन, वचन और काया से क्षमा मांगता हूँ ।" जो मैंने चारगति के देव, तिर्यंच, मनुष्य एवं नारक के पूर्व भवों में, या इस भव में चार कषायों को उपशान्त करने वाले और पाँच इन्द्रियों को वश में करने वालों का मन, वचन और काया के माध्यम से मन दुखाया हो, उन्हें संतापित किया हो, उन्हें अभितापित किया हो, उसकी मैं आलोचना करता हूँ और यदि उन्होने मुझे सन्तप्त किया हो, अभितापित किया हो, तो मैं भी उनको क्षमा करता हूँ। "फिर गुरू उस साधक को क्षमायाचना सम्बन्धी तीन गाथाओं पर विस्तार से व्याख्यान दे । फिर ग्लान साधक गुरू, साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका प्रत्येक से क्षमायाचना करे । गुरू को वस्त्रादि का दान करे और संघ की पूजा करे। यह अन्तिम संस्कार - विधि में क्षमापना की विधि है । अब ग्लान मृत्युकाल के निकट आने पर पुत्रादि द्वारा सभी मन्दिरों में पूजा, स्नात्र ध्वजारोपण आदि करवाए मन्दिरों एवं धर्मस्थानों में वित्त का विनियोग करवाए। फिर परमेष्ठीमंत्र के उच्चारणपूर्वक बोले "सर्वकाल में तथा मेरी जानकारी के अनुसार जिन-जिन स्थानों पर मैंने परमात्मा की आशातना की है, उन सब की आलोचना करने के लिए मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy