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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर 92 सेंध "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष स्थूल अदत्तादान लगाने, चोरी करने, राजदण्ड दिलवाने वाला कर्म करने, सचित्त-अचित्त वस्तुओं में मिलावट करने (भेल - संभेल) का त्याग करता हूँ। जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग से अर्थात् मन, वचन, काया इन तीनों योगों से पाप - व्यापार को न करूंगा, न कराऊंगा" शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले । - "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष स्वपत्नी के अतिरिक्त, औदारिक एवं वैक्रिय शरीर द्वारा मैथुन - सेवन का त्याग करता हूँ और जो आज ग्रहण किए गए व्रत का भंग करने वाली हैं, उन पाप-प्रवृत्तियों को दो करण एवं तीन योग से, अर्थात् मन, वचन और काया इन तीनों योगों से न करूंगा, न कराऊंगा" शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले । “हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष अपरिमित परिग्रह - संग्रह की वृत्ति का त्याग करके धन, धान्य आदि नवविध वस्तुओं सम्बन्धी इच्छापरिमाण की प्रतिज्ञा करता हूँ। जो आज ग्रहण किए गए व्रत का भंग करने वाली हैं, उन प्रवृत्तियों को दो करण एवं तीन योग से अर्थात् मन, वचन और काया इन तीनों योगों से न करूंगा, न कराऊंगा" शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले । "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष प्रथम गुणवत दिशापरिमाण का नियम ग्रहण करता हूँ। जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग से, अर्थात् मन, वचन और काया इन तीनों योगों से दिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन न करूंगा, न कराऊंगा" - शेष पूर्ववत् इस प्रकार तीन बार बोले । - - Jain Education International - "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष उपभोग - परिभोग, अर्थात् खाद्य एवं उपभोग की वस्तुओं के परिमाण का व्रत ग्रहण करता हूँ। भोजन में अनंतकाय, बहुबीज, रात्रि - भोजन आदि का त्याग करता हूँ, शेष भोजन एवं उपयोग की वस्तुओं का परिमाण करता हूँ। साथ ही राजा के आदेश को छोड़कर अग्नि लगाना आदि अति हिंसक एवं कठोर कर्मों को करने का प्रत्याख्यान करता हूँ । अत्यन्त परिमित भोग-उपभोग संबंधी व्रत को ग्रहण करता हूँ । जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग अर्थात् मन, वचन और काया इन तीनों योगों से पाप व्यापार को स्वयं न करूंगा, न कराऊंगा" - शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले । आर्त-रौद्र "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष अनर्थदण्डगुणव्रत ऐसे ध्यान करना, पापोपदेश देना, हिंसा का आदेश देना, प्रमाद करना For Private & Personal Use Only - -- — www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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