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षोडश संस्कार
आचार दिनकर – 87 ___ "हे भगवन् ! आज मैं आपके सान्निध्य में मिथ्यात्व का (प्रतिक्रमण कर) त्याग करता हूँ एवं सम्यक्त्व को प्राप्त करता हूँ। वह चार प्रकार का है - द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव। द्रव्य से मिथ्याकृत्य का त्याग करता हूँ एवं सम्यक्त्व को धारण करता हूँ। आज से मेरे लिए अन्य तैर्थिक, अन्य तैर्थिकों के देव या अन्य तैर्थिकों द्वारा ग्रहीत अर्हत चैत्य मेरे द्वारा वंदनीय एवं नमस्कार करने के योग्य नहीं हैं। उन अन्य तैर्थिकों के साथ सम्भाषण करना, उनको बुलाना, उनके साथ संलाप करना व उनको अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम देना, या प्रदान करना मेरे लिए योग्य नहीं है। क्षेत्र से यहाँ, अर्थात् मनुष्य क्षेत्र में या अन्यत्र, काल से जीवन पर्यन्त एवं भाव से जब तक ग्रहों से ग्रसित न होऊँ, जब तक छल से छला न जाऊँ, जब तक सन्निपात न हो, या इसी प्रकार के किन्हीं अन्य परिणामों का परिवर्द्धन न हो, तब तक एवं जब तक राजाभियोग, बलाभियोग, गणाभियोग, देवाभियोग या गुरू द्वारा निग्रहित न हो, तब तक उपर्युक्त वृत्तियों का मैं त्याग करता हूँ।
यह दण्डक सूत्र तीन बार बोलें । पाठान्तर से अन्य लोग इस दण्डक का भी उच्चारण करते हैं -
"हे भगवन् ! आज मैं आपके सान्निध्य में मिथ्या का (प्रतिक्रमण) त्याग करता हूँ एवं सम्यक्त्व को ग्रहण करता हूँ। आज से मैं अन्य तैर्थिक, अन्य तैर्थिकों के देव, या अन्य तैर्थिकों द्वारा ग्रहीत अर्हत् चैत्य को वंदन-नमस्कार नहीं करूंगा। साथ ही उनके साथ सम्भाषण करने, या उन्हें बुलाने, या उनसे संलाप करने का त्याग करता हूँ। उनको अशन, पान, खादिम, स्वादिम नहीं दूंगा, अर्थात् प्रदान नहीं करूंगा। अन्यत्र राजाभियोग, गणाभियोग, बलाभियोग, देवाभियोग, या गुरू द्वारा निग्रहित, अर्थात् गुरू के आदेश के अतिरिक्त मिथ्यात्व सम्बन्धी क्रियाओं का चतुर्विध रूप से, अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव से त्याग करता हूँ। द्रव्य से दर्शन-व्रत को अंगीकार करता हूँ एवं मिथ्यात्व का त्याग करता हूँ। क्षेत्र से ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यगलोक में, काल से जीवन पर्यन्त, भाव से जब तक ग्रहों से ग्रसित न होऊँ, जब तक छल से छला न जाऊँ, जब तक सन्निपात आदि रोगों के कारण चित्तवृत्ति विचलित न हों, तब तक मैं इस दर्शन-व्रत का आचरण करूँगा।"
गुरू-परम्परा से बोला जाने वाला यह द्वितीय दण्डक या पूर्वकथित दण्डक - इन दोनों में से किसी एक दण्डक का तीन बार उच्चारण करें।
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