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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 83 मस्तक झुकाकर वंदन करना चाहता हूँ। हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे सम्यक्त्व-आरोपण एवं नंदी-क्रिया करने के लिए वासक्षेप प्रदान करें।" फिर गुरू वासक्षेप को सूरिमंत्र या गणिविद्या के द्वारा अभिमंत्रित करके परमेष्ठी एवं कामधेनु की मुद्रा बनाकर पूर्वाभिमुख खड़े होकर उसे वाम पार्श्व में स्थित श्रावक के सिर पर डाले। उसके मस्तक पर हाथ रखकर गणधर-विद्या के द्वारा रक्षा करे। उसके बाद गुरू पुनः आसन पर बैठे हैं। श्रावक पूर्व की भांति समवशरण की प्रदक्षिणा करके गुरू के आगे खमासमणा सूत्र से वंदन कर कहे -
__"हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे सम्यक्त्व आदि रत्नत्रय के आरोपण-रूप चैत्यवंदन करायए" उसके पश्चात् गुरू एवं शिष्य दोनों वर्धमान की चार स्तुतियों के द्वारा चैत्यवंदन करें। वर्धमान-स्तुतियाँ जैन-शास्त्र में निबद्ध चरम जिनेश्वर वर्धमान स्वामी की स्तुतिरूप हैं। फिर चौथी स्तुति कहकर अन्त में श्री शान्तिनाथ भगवान् की आराधना हेतु "मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। ऐसा कहकर वंदणवत्तियाएसूत्र एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करें) सूत्र के लिए परिशिष्ट देखें। सत्ताईस श्वास-उच्छवास में चतुर्विंशति-स्तव का चिन्तन करें। फिर "अरिहंतो को नमस्कार हों।"- इस प्रकार कहकर द्वारा कायोत्सर्ग पूर्ण करे। तत्पश्चात् "नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्य" कहकर निम्न स्तुति बोलें -
"श्रीमते शान्तिनाथाय नमः शान्ति विधायिने । त्रैलोक्यस्यामराधीश मुकुटाभ्यर्चितांघ्रये ।। शान्तिः शान्तिकरः श्रीमान् शान्तिं दिशतु मे गुरूः । शान्तिरेव सदा तेषां येषां शान्तिर्गृहे गृहे ।।"
पुनः श्रुतदेवता की आराधना हेतु “मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- ऐसा कहकर तथा अन्नत्थसूत्र' बोलकर कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में परमेष्ठी (नवकार) मंत्र का ही चिन्तन करें। उसके बाद 'नमो अरिहंताणं' से कायोत्सर्ग पूर्णकर "नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्य" कहकर निम्न स्तुति बोलें -
"सुअदेवया भगवई नाणावरणीकम्मसंघायं । तेसिं खवेउ सययं जेसिं सुअसायरे भत्ती ।। अथवा
"श्वसितसुरभिगन्धाल्लब्ध,गीकुरगं मुखशशिनमजलं बिभ्रती या बिभर्ति। विकचकमलमुच्चैः सास्त्वचिन्त्यप्रभावा सकलसुखविधात्री प्राणभाजां
श्रुतांगी।।" Jain Education International
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