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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 79 // पन्द्रहवां उदय // व्रतारोपण-संस्कार-विधि इस लोक में गर्भ से लेकर विवाह तक के चौदह संस्कारों से संस्कारित व्यक्ति भी व्रतारोपण-संस्कार के बिना इस जन्म में लक्ष्मी के सदुपयोग, प्रशंसा और कल्याण का पात्र नहीं बन पाता है और न परलोक में, या अन्य जन्म में आर्य-देश, मनुष्य-जन्म, स्वर्ग एवं मोक्ष के सुख आदि को प्राप्त करता है। अतः मनुष्यों के लिए व्रतारोपण-- संस्कार परम कल्याणरूप है। जैसा कि आगम में कहा गया है - "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र - कोई भी हो, सभी धर्म साधना से ही मोक्ष के योग्य होते हैं।" "सर्वकलाओं में प्रवीण जो मनुष्य धर्मकला को नहीं जानते हैं, वे बहत्तर कलाओं में कुशल एवं विवेकशील होने पर भी (वास्तव में) कुशल नहीं हैं।" अन्य सिद्धांत में भी कहा गया है कि धर्माचरण के बिना उपनीत, पूज्य तथा कलावान् मनुष्य भी न तो इस लोक में और न परलोक में सुख को प्राप्त कर पाता है। अतः यहाँ सभी संस्कारों में प्रधानभूत व्रतारोपण-संस्कार का विवेचन किया गया है, उसकी विधि यह है - पूर्व में उल्लेख किए गए विवाह तक के संस्कार गृहस्थ गुरू या जैन ब्राह्मण, या क्षुल्लकों द्वारा करवाए जाते हैं, किन्तु व्रतारोपण-संस्कार निर्ग्रन्थ यति द्वारा ही करवाया जाता है। निर्ग्रन्थ गुरू की खोज (चयन) इस प्रकार करें - ____ "पांच महाव्रतों से युक्त, पांच प्रकार के आचारों का पालन करने में समर्थ, पाँच समिति, तीन गुप्ति से युक्त तथा छत्तीस गुणों वाला पुरूष ही निर्ग्रन्थ गुरू होता है। जो रूपवान् (श्रेष्ठ चरित्रवाला). युगप्रधान, आगम का ज्ञाता, मधुर वक्ता, गंभीर, बुद्धिमान और सन्मार्ग हेतु उपदेश देने वाला हो, ऐसा निर्ग्रन्थ साधु ही आचार्य, अर्थात् गुरूपद का अधिकारी होता है। अपरिस्रावी, सौम्य, संग्रहशील एवं विनयशील, स्वप्रशंसा से रहित, चंचलता से रहित और प्रसन्न चित्तवाला निर्ग्रन्थ (साधु) ही गुरू पद के योग्य होता है। कितने ही तीर्थकर अजरामर पद का पंथ अर्थात मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन कर मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, परन्तु संप्रति (वर्तमान काल में तो) में तो जिन प्रवचन का आधार आचार्य ही हैं। प्रकारांतर से आचार्य गुरू के गुण इस प्रकार है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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