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________________ 'अंगविज्जा' में जैन मंत्रों का प्राचीनतम स्वरूप ग्रन्थ और इसका मंत्र विभाग प्रचीन है, क्योंकि नमस्कार मंत्र की चूलिका सर्वप्रथम आवश्यक नियुक्ति में उपलब्ध होती है। अतः इस ग्रन्थ का मंत्र भाग ई. पू. दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य और आवश्यक नियुक्ति के पूर्व निर्मित है, यह माना जा सकता है। दूसरे अंगविज्जा के मंत्र भाग में सूरिमंत्र और वर्द्धमान विद्या का भी पूर्व रूप मिलता है। ज्ञातव्य है कि ऋद्धिपद, लब्धिपद या सूरिमंत्र के रूप में दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम के चतुर्थ खण्ड के वेदना महाधिकार के कृति अनुयोगद्वार में ४४ लब्धि पदों का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रश्नव्याकरण सूत्र, तत्त्वार्थभाष्य, गणधरवलय और सूरिमंत्र में भी इन पदों का उल्लेख मिलता है। गणधरवलय में इनकी संख्या ४५ है। सूरिमंत्र की विभिन्न पीठों में इनकी संख्या अलग-अलग है। जहाँ तक अंगविज्जा का प्रश्न है उसमें वे सभी ऋद्धिपद या लब्धिपद तो नहीं मिलते, किन्तु उनमें से बहुत कुछ ऋद्धि या लब्धिपद पूर्वोल्लेखित अष्टम् अध्याय के संग्रहणी पटल में मिलते हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि अंगविज्जा का मंत्र विभाग जैन मांत्रिक साधना का प्राचीनतम रूप प्रस्तुत करता है। Jain Education International * : ७५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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