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________________ लिखा है अतः निष्पक्ष इतिहास की दृष्टि से उनके कथन भी प्रमाण रूप से ग्राह्य नहीं हो सकते। अब हम जिन प्रतिमाओं के सम्बन्ध में विचार करने जा रहे हैं उनकी प्राचीन स्थिति क्या थी, इसे कुछ पुरातात्त्विक अभिलेखीय साक्ष्यों से सिद्ध करेंगे। कंकाली टीले से प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्री और शिलालेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी से ही वहाँ जिनमूर्तियाँ निर्मित हुई हैं और वे प्रतिमाएँ आज भी उपलब्ध हैं । आचार्य हस्तीमलजी का यह कथन कि आचार्य नागार्जुन आदि यदि मूर्तिपूजा के पक्षधर होते तो उनके द्वारा प्रतिस्थापित मूर्तियाँ और मन्दिरों के अवशेष कहीं न कहीं अवश्य उपलब्ध होते। किन्तु नागार्जन के नाम का यदि कोई मर्तिलेख उपलब्ध न हो, तो इससे यह निर्णय तो नहीं निकाला जा सकता कि जैन संघ में इसके पूर्व मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। श्वेताम्बर आगमसाहित्य में विशेष रूप से कल्पसूत्र-स्थविरावली में उल्लेखित गण, शाखा और कलों के अनेक आचार्यों की प्रेरणा से स्थापित अभिलेख युक्त अनेक मूर्तियाँ मथुरा के कंकाली टीले से ही उपलब्ध हैं। आचार्य श्री हस्तीमलजी का 'कलिंगजिन' को 'कलिंगजन' पाठ मानना भी उचित नहीं हैं। पटना के लोहानीपुर क्षेत्र से मिली जिन प्रतिमा इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन परम्परा में महावीर के निर्वाण के लगभग १५० वर्ष पश्चात् ही जिन प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि ईसवी पूर्व तीसरीचौथी शताब्दी से लेकर ईसा की छठी शताब्दी तक श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं के अनुरूप अलग-अलग प्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था। श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा के भेद के बाद भी लगभग चार सौ साल का इतिहास यही सूचित करता है कि वे सब एक ही मंदिर में पूजा उपासना करते थे। हल्सी के अभिलेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ, निग्रन्थ महाश्रमण संघ और यापनीय संघ तीनों ही उपस्थित थे, किन्तु उनके मंदिर और प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न नहीं थे। राजा ने अपने दान में यह उल्लेख किया है कि इस ग्राम की आय का एक भाग जिनेन्द्रदेवता के लिए, एक भाग श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ हेतु और एक भाग निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के हेतु उपयोग किया जाए। यदि उनके मंदिर व मूर्ति भिन्न-भिन्न होते, तो ऐसा उल्लेख सम्भव नहीं होता। भाई रतनचन्द जी का यह कथन सत्य है कि ईसा की छठी शताब्दी से पहले जितनी भी जिन प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं, वे सब सर्वथा अचेल और नग्न हैं। उनका यह कथन भी सत्य है कि सवस्त्र जिन प्रतिमाओं का अंकन लगभग छठी-सातवीं शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है। किन्तु इसके पूर्व की स्थिति क्या थी, इस सम्बन्ध में वे प्राय: चुप हैं। यदि श्वेताम्बर परम्परा का अस्तित्व उसके पूर्व में भी था तो For Private & Personal Use Only Jain Education International ___www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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