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________________ जिनप्रतिमा का प्राचीन स्वरूप : एक समीक्षात्मक चिन्तन अपने सम्पादकीय में प्रो. रतनचन्द्र जैन ने सर्वप्रथम विशेषावश्यक भाष्य का निम्न सन्दर्भ प्रस्तुत किया है : 'जिनेन्द्रा अपि न सर्वथैवाचेलका : ' : ६३ - 'सव्वे वि एग दूसेणनिग्गया जिनवरा चउव्वीसं' इत्यादि वचनात् (विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति सह गाथा - २५५१) जब साक्षात् तीर्थंकर देवदुष्य- वस्त्र युक्त होते हैं तो उनकी प्रतिमा भी देवदुष्य युक्त होनी चाहिए। प्रस्तुत सन्दर्भ वस्तुत: लगभग छठीं शताब्दी का है। यह स्पष्ट है कि छठीं शताब्दी में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा एक दूसरे से पृथक हो चुकी थी। प्रस्तुत गाथा और उसकी वृत्ति ही नहीं, यह सम्पूर्ण ग्रन्थ ही श्वेताम्बर मान्यताओं का सम्पोषक है, चाहे आचारांग का यह कथन सत्य हो कि भगवान महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र ग्रहण किया था, किन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि उन्होंने तेरह माह के पश्चात् उस वस्त्र का परित्याग कर दिया था। उसके पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे । किन्तु पार्श्व के सम्बन्ध में विशेषावश्यक भाष्य का यह कथन स्वयं उत्तराध्ययन से ही खण्डित हो जाता है कि पार्श्व भी एक ही वस्त्र कर दीक्षित हुए थे। वस्त्र के सम्बन्ध में पार्श्व की परम्परा सन्तरोत्तर थी अर्थात् पार्श्व की परम्परा के मुनि एक अधोवस्त्र ( अंतर - वासक) और एक उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र धारण करते थे । यहाँ यह भी मानना बुद्धिगम्य नहीं लगता कि किसी भी तीर्थंकर की शिष्य परम्परा अपने गुरु से भिन्न आचार का पालन करती हो। अतः श्वेताम्बरों का यह कहना कि गौतम आदि महावीर की परम्परा के गणधर सवस्त्र थे, सत्य प्रतीत नहीं होता, इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता कि सारे तीर्थंकर एवं उनके शिष्य अचेल ही थे, विश्वसनीय नहीं लगता। चाहे भगवान महावीर ने मुनियों की निम्न श्रेणी के रूप में ऐलकों और क्षुल्लकों की व्यवस्था की हो और ऐलकों को एक वस्त्र तथा क्षुल्लकों को दो वस्त्र रखने की अनुमति दी हो तथा इसी सम्बन्ध में सामायिक - चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र (महाव्रतारोपण) ऐसी द्विविध चारित्र की व्यवस्थाएं दी हों, फिर भी यह सम्भव हैं कि भगवान महावीर ने सवस्त्र मुनियों को मुनिसंघ में बराबरी का दर्जा नहीं दिया हो । यह बात स्वयं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित सामायिक - चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र की अवधारणा से भी सिद्ध होती है। श्वेताम्बरों में जिनकल्प और स्थविरकल्प की अवधारणा तथा दिगम्बर परम्परा में क्षुल्लक, ऐलक एवं अचेल मुनि के भेद यही सिद्ध करते हैं। यहाँ हम इस चर्चा में न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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