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जैन दर्शन में मोक्ष की अवधारणा : ६१
चैतसिक विकृतियों के कारणगत और स्वरूपगत वैविध्य के कारण उनकी चिकित्सा रूप धर्म में वैविध्य हो सकता है किन्तु उस चिकित्सा के फलस्वरूप पुनः उपलब्ध स्वास्थ्य तो एक ही रूप होता है । उसी प्रकार धर्म या साधना पद्धतियों का वैविध्य साक्ष्य रूप मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण के वैविध्य का कारण नहीं है। अत: विविध परम्पराओं की मोक्ष की अवधारणा कहने भर को ही भिन्नभिन्न होती है, उसमें स्वरूपगत भेद नहीं है। अत: जैन, बौद्ध, हिन्दू या सिख धर्मों के मोक्ष के विवरण में भेद प्रतीतिरूप भेद है अनुभूतिरूप भेद नहीं है। जैसे दस व्यक्ति गुड़ का स्वाद चखें उनकी अनुभूति समान होती है, भेद मात्र भाषागत अभिव्यक्ति में होता है।
मोक्ष का अर्थ है - ज्ञेयावरण और क्लेशावरण कर्मों का नष्ट हो जाना, उन कर्मों का आवरण हट जाना । चेतना का विक्षोभों, विकारों, विचारों और विकल्पों से मुक्त हो जाना। वह ममत्व और कर्ता भाव से ऊपर उठकर वीतराग, वीततृष्ण और अनासक्त अवस्था की प्राप्ति है, इसे सभी धर्म और दर्शनों ने स्वीकार किया है। संक्षेप में कहें तो वह आत्मोपलब्धि है, स्व-स्वरूप में अवस्थिति है । ज्ञाताद्रष्टा भाव में जीना है ।
मोक्ष कोई ऐसी वस्तु भी नहीं है, जो पूर्व में अनुपलब्ध थी और बाद में उसे पाया गया हो। जिस प्रकार स्वास्थ्य कोई ऐसी बाह्य वस्तु नहीं है जिसे पाया जाता है, वह तो बीमारी या विकृति के हटने का नाम है, वैसे ही मोक्ष या निर्वाण भी वासना या विकारों का शान्त हो जाना है । वह अनुपलब्ध की उपलब्धि नहीं है, अपितु उपलब्ध की ही पुनः उपलब्धि है। स्वास्थ्य पाया नहीं जाता है, मात्र बिमारी या विकृति को हटाने पर उपलब्ध होता है। जिस प्रकार सूर्य सदा प्रकाशित है, प्रकाश की उपलब्धि के लिए मात्र बादलों के आवरण हटना जरूरी है । उसी प्रकार चेतना को विक्षोभित और विद्रूपित करनेवाले तत्त्वों या कर्मरूपी आवरण का हट जाना ही हमारी मुक्ति है। चेतना निर्मल और प्रशान्त रहे यही मुक्ति का अर्थ है । पारलौकिक जीवन तो मात्र उस परम विशुद्ध अवस्था का परिचायक है, किन्तु उस अवस्था की उपलब्धि तो इसी जीवन में करनी होती है ।
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