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जैन दर्शन में मोक्ष की अवधारणा
भारतीय धर्मों एवं दर्शनों का मुख्य प्रयोजन मोक्ष की प्राप्ति है। भारतीय चिन्तकों ने मोक्ष को ही मानव जीवन का परम पुरुषार्थ माना है। समस्त साधनाएँ मोक्ष के निमित्त ही की जाती हैं। मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, परमपद, शिवपद, परमात्मपद, सिद्धपद, परमधाम आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। मोक्ष या निर्वाण के सम्बन्ध में साध्यगत समानता होते हुए भी भारतीय चिन्तकों में जो स्वरूपगत मतभिन्य देखा जाता है, उसका कारण मोक्षतत्त्व नहीं, अपितु हमारी भाषागत और ज्ञानगत सीमितता ही होती है। जिस प्रकार एक ही भवन के विविध कोणों से लिये गये चित्र भिन्न-भिन्न होकर भी उसी तथ्य को उजागर करते हैं, वैसे ही मोक्ष सम्बन्धी विभिन्न विवरण भी अपने वैविध्य के बावजूद उसी सत्य को उजागर करते हैं। सत्य तो यह है कि परमतत्त्व हमारी शब्द सीमा से परे है, वर्णनातीत है, अनिर्वचनीय है, अवाच्य है। जब भी उसे शब्दों की सीमा में बाँधने का कोई प्रयत्न होता है, असीम और अनन्त को भाषा के द्वारा वाच्य बनाने का कोई प्रयास होता है तब हमारी भाषा की सीमा के कारण समग्र सत्य तो कहीं बाहर ही छूट जाता है। अनुभूति को जब भी भाषा के सहारे अभिव्यक्ति दी जाती है तो वह मात्र सीमित या सापेक्ष ही नहीं, वरन एक प्रतिभास बनकर रह जाती है। इतना ही नहीं, वे शब्द चित्र भी उस अनुभूति को अभिव्यक्ति देने में असमर्थ होते हैं। व्यावहारिक जीवन में भी हम देखते हैं कि अनेक लोगों ने गुड़ के स्वाद की अनुभूति की होती है, किन्तु जब वे शब्दों के सहारे उसके यथार्थ स्वाद को अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न करते हैं तो उसमें वैविध्य होता है। चाहे कोई गड़ के स्वाद पर पी-एच.डी. का शोध-प्रबन्ध भी लिख दे, किन्तु यह सत्य समझ लेना है कि उसे पढ़कर भी कोई उस अनुभूति को पाने में समर्थ नहीं हो सकता।
मोक्ष या मुक्ति भी एक अनुभूति है। शब्दों के माध्यम से उसके सम्बन्ध में कुछ भी कहने का प्रयत्न ठीक वैसा ही होता है जैसे कोई नक्शे के माध्यम से हिमालय की ऊँचाई या गंगा की गहराई को समझाने का प्रयत्न करे। नक्शे के तथ्य को समझाने का सार्थक प्रयत्न तो कहा जा सकता है, किन्तु उन्हें सत्य समझ लेना भ्रान्ति को ही जन्म देता है। शब्द सत्य की ओर इशारा (संकेत) कर
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