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जैन तत्त्वमीमांसा की विकासयात्रा : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में 1: ५१
मोक्ष, पुण्य, पाप, आनव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अक्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, चतुरंत संसार, देव, देवी, सिद्धि, असिद्धि, सिद्धनिजस्थान, साधु, असाधु, कल्याण और पाप ।
इस विस्तृत सूची का निर्देश सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन में हुआ है। जहाँ जीव- अजीव, पुण्य-पाप, आस्त्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, क्रिया - अधिकरण, बंध और मोक्ष का उल्लेख हैं। पं. दलसुखभाई मालवणिया का मानना है कि इसमें से वेदना, क्रिया और अधिकरण को निकालकर आगे नौ तत्त्वों की अवधारणा बनी होगी जिसका निर्देश हमें समवायांग ( ९ ) और उत्तराध्ययन (२८/१४) में मिलता है। उन्हीं नौ तत्त्वों में से आगे चलकर ईसा की तीसरी - चौथी शताब्दी में उमास्वाति ने पुण्य और पाप को आस्रव के अन्तर्गत वर्गीकृत करके सात तत्त्वों की अवधारणा प्रस्तुत की । इन सात अथवा नौ तत्त्वों की चर्चा हमें परवर्ती सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों के ग्रन्थों में मिलती है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनों में सात तत्त्वों की अवधारणा भी पंच- अस्तिकाय की अवधारणा से ही एक कालक्रम में लगभग ईसा की तीसरी - चतुर्थ शती में अस्तित्व में आयी है। सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य जो मुख्य काम इन अवधारणाओं के सन्दर्भ में हुआ वह यह कि उन्हें सम्यक् प्रकार से व्याख्यायित किया गया और उनके भेद - प्रभेद की विस्तृत चर्चा की गयी ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में षट्द्रव्य सात या नौ तत्त्व और षट्जीव निकाय की अवधारणा का जो विकास हुआ है उसके मूल में पंचास्तिकाय की अवधारणा ही मूल है, क्योंकि नवतत्त्वों की अवधारणा के मूल में भी जीव और पुद्गल मुख्य हैं जो जीव के कर्म पुद्गलों के साथ सम्बन्ध को सूचित करते हैं। कर्म पुगलों का जीव की ओर आना आस्रव है, जो पुण्य या पाप रूप होता है। जीव के साथ कर्म पुगलों का संश्लिष्ट होना बन्ध है । कर्मपुद्गलों का आगमन रुकना संवर है और उनका आत्मा या जीव से अलग होना निर्जरा है । अन्त में कर्म पुद्गलों का आत्मा से पूर्णतः विलग होना मोक्ष है। जैन आचार्यों ने पंचास्तिकाय की अवधारणा का अन्य दर्शन परम्पराओं में विकसित द्रव्य की अवधारणा से समन्वय करके षट्द्द्रव्यों की अवधारणा का विकास किया। अग्रिम पंक्तियों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि षट्द्रव्यों की अवधारणा का और विशेष रूप से द्रव्य की परिभाषा को लेकर जैन दर्शन में कैसे विकास हुआ है ? द्रव्य की अवधारणा
विश्व के मूलभूत घटक को ही सत् या द्रव्य कहा जाता है। प्राचीन भारतीय परम्परा में जिसे सत् कहा जाता था वही आगे चलकर द्रव्य के रूप में माना गया।
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