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भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख घटकों का सहसम्बन्ध : १७
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि न केवल थेरगथा अपितु बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में उल्लिखित नाटपुत्र (ज्ञातपुत्र) जैन परम्परा के वर्धमान महावीर ही हैं। सूत्रकृतांग की महावीर स्तुति में महावीर के लिये जो 'सव्ववारिवारित्तो' का निर्देश है वह त्रिपिटक के ग्रन्थों में समान रूप से पाया जाता है। अत: थेरगाथा के वर्धमान थेर और जैन परम्परा के महावीर भिन्न व्यक्ति नहीं हैं। इसी प्रकार पिंग ऋषि का जो उल्लेख ऋषिभाषित, सुत्तनिपात और महाभारत में पाया जाता है कि उसके आधार पर उन्हें अलग-अलग व्यक्ति नहीं माना जा सकता। जैन परम्परा के ऋषिभाषित, सूत्रकृतांग, स्थानांग और अनुत्तरौपपातिक तथा बौद्ध परम्परा के त्रिपिटक साहित्य के अनेक ग्रन्थों में रामपुत्त का उल्लेख मिलता है, उन्हें भी अलग-अलग व्यक्ति नहीं माना जा सकता। अत: तीनों परम्परा में जो कुछ नाम समान रूप से मिलते हैं उन्हें भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानना पक्षाग्रह का ही सूचक होगा।
इन समरूपताओं से यही सूचित होता है कि जिस प्रकार चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में भारत में सन्तों की सामन्जस्यपूर्ण परम्परा रही है वैसे ही बुद्ध और महावीर के पूर्व और उनकी समकालिक ऋषि परम्परा रही है। कालान्तर में जब धर्म-सम्प्रदायों का गठन हुआ, तो इसी पूर्व परम्परा में से मन्तव्य आदि की अपेक्षा जो अधिक समीप लगे उनको अपनी धारा में स्थान दे दिया गया और शेष की उपेक्षा कर दी गई। यह भी हुआ कि कालान्तर में जब साम्प्रदायिक आग्रह दृढ़मूल होने लगे तो पूर्व में स्वीकृत ऋषियों को भी अपनी परम्परा से अभिन्न बताने हेतु उन्हें भिन्न व्यक्ति बताने का प्रयत्न किया गया । यह स्थिति जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में घटित हुई। यही कारण रहा कि कालान्तर में ऋषिभाषित को मूलागम साहित्य से हटा कर प्रकीर्णक साहित्य में डाल दिया गया और आगे चलकर उसे वहां से भी हटा दिया गया। चाहे हम सहमत हों या न हों किन्तु यह सत्य है कि प्राचीन भारत की इसी श्रमण धारा की ऋषि परम्परा से औपनिषदिक बौद्ध, जैन, आजीवक और सांख्य, योग आदि का विकास हुआ है। जैन धारा मूलत: श्रमणधारा का ही एक अंग हैं। सूत्रकृतांग में आचार और विचारगत मतभेदों के बावजूद भी विदेह, नमी, रामपुत्त, बाहुक, उदक, नारायण, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि को अपनी परम्परा से सम्मत बताते हुए तपोधन, तात्त्विक महापुरुष तथा सिद्धि को प्राप्त कहा गया है। यह इस तथ्य का सूचक है कि मूल में भारतीय श्रमणधारा एक रही है और औपनिषदिक, सांख्य, योग, बौद्ध, जैन
और आजीवक परम्पराएँ इसी श्रमणधारा से विकसित हुई हैं और किसी न किसी रूप में उसकी अंगीभूत भी हैं।
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