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________________ १७४ से सीधे निर्वाण की सम्भावना को स्वीकार कर उसने संन्यास और गृही जीवन के मध्य एक सार्थक सन्तुलन बनाया है जिसमें संन्यास का महत्त्व भी यथावत् सुरक्षित रह सका है। इसके साथ ही श्रमण संस्था को समाज सेवा और लोकमंगल का भागीदार बनाकर श्रमण परम्परा पर होने वाले स्वार्थवादिता के आक्षेप का परिहार कर दिया है और भिक्षु संघ को समाज जीवन का एक उपयोगी अंग बना दिया है। वैदिक धर्म या गीता की अवतारवाद की अवधारणा को परिमार्जित कर श्रमण परम्परा के अनुरूप बोधिसत्वों की अवधारणा प्रस्तुत की। यहां हम स्पष्ट रूप से यह देखते हैं कि अवतार के समान बोधिसत्व भी लोकमंगल के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर देता है, प्राणियों का कल्याण ही उसके जीवन का आदर्श है। बोधिसत्व और अवतार की अवधारणा में तात्त्विक अन्तर होते हुए लोकमंगल के सम्पादन में दोनों समान रूप से प्रवृत्त होते हैं। जैनों के तीर्थंकर और हीनयान के बुद्ध के आदर्श ऐसे आदर्श हैं, जो निर्वाण के उपरान्त अपने भक्तों की पीड़ा के निवारण में सक्रिय रूप से साझीदार नहीं बन सकते। अतः भक्त हृदय और मानव को सन्तोष देने के लिए जैनों ने शासनदेव और देवियों ( यक्ष-यक्षियों) की अवधारणा प्रस्तुत की, तो महायान सम्प्रदाय ने तारा आदि देवी - देवताओं को अपनी साधना में स्थान प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि महायान सम्प्रदाय वैदिक परम्परा में विकसित गीता की अनेक अवधारणाओं से वैचारिक साम्य रखता है । प्रवृत्तिमार्गी धर्म के अनेक तत्त्व महायान परम्परा में इस प्रकार आत्मसात हो गये कि आगे चलकर उसे भारत में हिन्दू धर्म के सामने अपनी अलग पहचान बनाये रखना कठिन हो गया और उसे हिन्दू धर्म ने आत्मसात कर लिया। जबकि उसी श्रमण धारा का जैनधर्म निवृत्त्यात्मक पक्ष पर बराबर बल देता रहा है और अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखा। सन्दर्भ : १. दशचूलिका १/११-१३ ३. बोधिचर्यावतार, ८/९९ ५. वही, ८/१०९ ७. वही - ८/१०८ ९. अंगुत्तरनिकाय ११. बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. ६०९ १३. वही, ३/१२ १५. वही, ३/१८ १७. वही, ४/८ Jain Education International २. सुत्तनिपात २/७२ ४. वही, ८/११६ ६. बोधिचर्यावतार - ८/१०५ ८. श्रीमद्भागवत् ९/४४ १०. थेरगाथा, ९४१-९४२ १२. गीता, ३ / १३ १४. वही, ५ / २५, १२/४ १६. वही, ३/२० १८. शिक्षासमुच्चय, अनूदित धर्मदूत, मई १९४१ * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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