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________________ १७२ अर्थात् उनका ऋण चुकाये बिना खाता है वह चोर है।१३ सामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है। गीता के अनुसार लोकहित करना मनुष्य का कर्तव्य है। प्राणियों के हित सम्पादन में लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्राप्त करता है। वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है। जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, जो जीवन मुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोक-हितार्थ कर्म करते रहना चाहिए।" श्रीकृष्ण अर्जुन से ही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित) के लिए तुझे कर्तव्य करना उचित है।१६ गीता में भगवान के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है। ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें बौद्ध आचार्य शान्तिदेव के शिक्षा समुच्चय, नामक ग्रन्थ में मिलता है। हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियां मननीय हैं इस दुःखमय नरलोक में, जितने दलित, बन्धग्रसित, पीड़ित विपत्ति विलीन हैं, जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन हैं, वे मुक्त हो निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, छूटे दलन के फन्द से, हो ऐसा जग में, दुःख से विलखे न कोई, वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई, असन्मार्ग धरे न कोई, हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, सबका हो परम कल्याण, सबका हो परम कल्याण ।।१४ भोगवाद बनाम वैराग्यवाद भोगवाद और वैराग्यवाद भारतीय चिन्तन की आधारभूत धारणायें हैं। वैराग्यवाद निवर्तक धर्मों का मूल है तो भोगवाद प्रवर्तक धर्मों का। वैराग्यवाद शरीर और आत्मा तथा वासना और विवेक के द्वैत पर आधारित धारणा है। वह यह मानता है कि शरीर बन्धन का कारण है और समस्त अधर्मों का मूल है, अत: शरीर और इन्द्रियों की मांगों को ठुकराना ही श्रेयस्कर है। इसके विपरीत भोगवाद यह मानता For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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