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________________ धर्म निरपेक्षता और बौद्धधर्म : १५९ की चर्चा हुई है किन्तु उसकी सम्यक्दृष्टि दृष्टिनिरपेक्षता या दृष्टिशून्यता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बौद्धधर्म की दृष्टि में सभी दृष्टियां ऐकान्तिक होती हैं। वह यह मानता है कि आग्रह या एकांगीद्रष्टि राग के ही रूप हैं और जो इस प्रकार के दृष्टिराग में रत रहता है वह सम्यक्दृष्टि को उपलब्ध नहीं होता। अपितु जहां एक ओर स्वंय दृष्टिराग के कारण बन्धन में पड़ा रहता है वहीं दूसरी ओर इसी दृष्टिराग के परिणामस्वरूप कलह और विवाद का कारण बनता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टिपक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न तो विवाद में पड़ता है न बन्धन में। वह विश्वशान्ति का साधक होता है। सुत्तनिपात में बुद्ध बहुत ही मार्मिक शब्दों में कहते है कि “जो अपनी दृष्टि का दृढ़ाग्रही हो दूसरो को मूर्ख मानता है, वह दूसरे धर्म को मूर्ख और अशुद्ध बतलाने वाला स्वयं ही कलह का आह्वान करता है। वह किसी धारणा या दृष्टि पर अवस्थित हो, उसके द्वारा संसार में विवाद या कलह उत्पन्न करता है। किन्तु जो सभी धारणाओं को त्याग देता है वह मनुष्य संसार में कलह नहीं करता है। क्योंकि दृष्टि राग बांधता है, जो बांधता है वह अन्यत्र से तोड़ता भी है और जो तोड़ेगा वह कलह और विनाश को आमन्त्रित करेगा। बुद्ध पुनः स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं, पण्डित उन सबमें नहीं पड़ता है। दृष्टि को न ग्रहण करने वाला आसक्तिरहित पण्डित क्या ग्रहण करेगा? बुद्ध के शब्दों में जो लोग अपने धर्म को परिपूर्ण और दूसरे के धर्म को हीन बताते हैं वे दूसरों की अवज्ञा (निन्दा) से हीन होकर धर्म में श्रेष्ठ नहीं हो सकते। जो किसी दृष्टि विशेष को मानता है, जो किसी वादविशेष में आसक्त है वह मनुष्य शुद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। यही कारण है कि बुद्ध के शब्दों में विवेकी ब्राह्मण दृष्टि की तृष्णा में नहीं पड़ता, वह जो कुछ भी दृष्टि, श्रुति या विचार है, उन सब पर विजयी होता है और दृष्टियों से पूर्णरूप से मुक्त हो संसार में लिप्त नहीं होता। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्धधर्म दृष्टिराग का निषेध करके इस बात का संदेश देता है कि व्यक्ति को साधना और आध्यात्म के क्षेत्र में किसी प्रकार के दुराग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए । बौद्धधर्म की यह स्पष्ट धारणा है कि बिना दृष्टिराग को छोड़े कोई भी व्यक्ति न तो सम्यग्दृष्टि को प्राप्त हो सकता है और न निर्वाण के पथ का अनुगामी हो सकता है। इसीलिए बौद्धधर्म के सशक्त व्याख्याता विद्वान दार्शनिक नागार्जुन स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - तत्त्व का साक्षात्कार दृष्टियों के घेरे से ऊपर उठकर ही किया जा सकता है, क्योंकि समग्र दृष्टियाँ (दर्शन) उसे दूषित ही करती हैं। इस प्रकार बौद्ध दर्शन का दृष्टिराग के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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