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________________ १४४ प्रस्तुत किये हैं वे ईसा की आठवीं शती के पूर्व नहीं जाते। उन्होंने मध्वाचार्य, रामानुज, हेमाद्रि, शंकराचार्य, चित्सुखाचार्य आदि के ग्रन्थों से जो प्रमाण प्रस्तुत किये हैं वे भी उसे ईसा की आठवीं शती के पूर्व सिद्ध नहीं करते। उन्होंने अपने पक्ष के समर्थन में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के सरस्वती भवन की एक प्राचीन हस्तप्रत का छायाचित्र भी प्रस्तुत किया है उसकी शारदा लिपि प्राचीन है, वह पड़ी मात्रा की पन्द्रहवीं-सोलहवीं शती के जैन हस्तप्रतों की देवनागरी लिपि के लगभग समरूप है। अधिक से अधिक उनसे सौ वर्ष पूर्व की हो सकती है। आचार्य शंकर को जो वे ई.पू. पाँचवी शती में स्थापित करते हैं, वह मत भी प्रमाणों के आधार पर विचार करने वाले विद्वानों को मान्य नहीं है। उन्होंने राजशाही जिले के जमालगंज स्टेशन से पाँच किलोमीटर दूर स्थित पहाड़पुर से उपलब्ध राधाकृष्ण की मूर्ति का उल्लेख करके यह बताना चाहा है कि राधाकृष्ण की उपासना प्राचीन है। यह सत्य है कि पहाड़पुर ( वटगोहली) से ईसा की पाँचवीं शती के कुछ पुरातात्त्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं, उसमें इसी काल का पंचस्तूपान्वय का जैन अभिलेख भी है। किन्तु वहां से प्राप्त सभी सामग्री पाँचवी शती की है, यह मान लेना उचित नहीं है। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से जो जैन अवशेष प्राप्त हुए थे वे ई. पू. दूसरी शती से ईसा की ग्यारहवीं शती तक के हैं। अतः यह सम्भव है कि वह राधाकृष्ण की मूर्ति परवर्ती काल की हो। जहां तक राधाकृष्ण की उपासना की प्राचीनता का प्रश्न है, श्रीमद्भागवत में भी मात्र गोपियों का उल्लेख है, राधा का कोई उल्लेख नहीं है। अतः राधा की संकल्पना तो भागवत के भी बाद की है। जैन ग्रन्थों में कृष्ण और प्रद्युम्न के उल्लेख लगभग ईसा की तीसरी-चौथी शती से वर्तमान युग तक हुए हैं, यहीं नहीं इस सम्बन्ध में सोलहवीं सत्रहवीं शती तक जो स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये उनमें भी राधा का कोई उल्लेख नहीं है। जैन स्रोतों से राधा की उपासना की प्राचीनता सिद्ध नहीं होती है । मेरा आलेख मात्र जैन स्रोतों पर आधारित है, विद्वानों से अपेक्षा है कि वे अन्य साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक स्रोतों के आधार पर इसका काल निर्णय करें। जहाँ तक भागवत के रचना काल का प्रश्न है जैन स्रोतों के आधार पर वह आठवीं शती के बाद का ही ग्रन्थ सिद्ध होता है। सन्दर्भ : १. “से किं तं मिच्छासुअं? जं इमं अन्नाणिएहिं मिच्छादिडिएहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पिअं, तं जहा - भारहं रामायणं भीमासुरूक्खं, कोडिल्लयं सगडभद्विआओ खोड (घोडग) मुहं कप्पसिअं नागसुहुमं कनगसत्तरी वइसेसिअं बुद्धवयणं तेरासियं काविलिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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