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________________ राजप्रश्नीय सूत्र में चार्वाक मत का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा : १४१ यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये सभी तर्क वैज्ञानिक युग में इतने सबल नहीं रह गये हैं, किन्तु ई. पू. सामान्यतया चार्वाकों के पक्ष के समर्थन में और उनका खण्डन करने के लिये ये ही तर्क प्रस्तुत किये जाते थे। अतः चार्वाक दर्शन के ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से इनका अपना महत्त्व है। जैन और बौद्ध परम्परा में इनमें अधिकांश तर्क समान होने से इनकी ऐतिहासिकता, प्रामाणिकता और प्राचीनता भी स्वत: सिद्ध है। जैन साहित्य में दार्शनिक दृष्टि से जहाँ तक चार्वाक दर्शन के तर्कपुरस्सर प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा का प्रश्न है सर्वप्रथम उसे आगमिक व्याख्या साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विशेषावश्यकभाष्य ( ईस्वी सन् की सातवीं शती) में देखा जा सकता हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा ईस्वी सन् की छठी शती में प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ की लगभग ५०० गाथायें तो आत्मा, कर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, बन्धन- मुक्ति आदि अवधारणाओं की तार्किक समीक्षा से सम्बन्धित हैं। इस ग्रन्थ का यह अंश गणधरवाद के नाम से जाना जाता है और अब स्वतन्त्र रुप से प्रकाशित भी हो चुका है। प्रस्तुत निबन्ध में इस समग्र चर्चा को समेट पाना सम्भव नहीं था अतः इस निबन्ध को यहीं विराम दे रहे हैं। * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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