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________________ १३० द्वारा निर्मित नहीं हैं, न ही ये किसी कर्ता द्वारा बनाये हुए हैं, ये किये हुये भी नहीं हैं, न ही ये कृत्रिम हैं और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं। ये पाँचो महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवध्य और आवश्यक कार्य करने वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत नित्य हैं। यह ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऐसा कोई भी सन्दर्भ उपलब्ध नहीं होता जिसमें मात्र चार महाभूत (आकाश को छोड़कर) मानने वाले चार्वाकों का उल्लेख हुआ हो । प्रस्तुत ग्रन्थ में पंचमहाभूतवादियों के उपरोक्त विचारों के साथ-साथ पंचमहाभूत और छठा आत्मा ऐसे छः तत्त्वों को मानने वाले विचारकों का भी उल्लेख हुआ है। इनकी मान्यता को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। इतना ही जीवकाय है, इतना ही अस्तिकाय है और इतना ही समग्र लोक है। पंचमहाभूत ही लोक का कारण है। संसार में तृण - कम्पन से लेकर जो कुछ होता है वह सब इन पाँच महाभूतों से ही होता है। आत्मा के असत् अथवा अकर्ता होने से हिंसा आदि कार्यों में पुरुष दोष का भागी नहीं होता, क्योंकि सभी कार्य भूतों के हैं सम्भवतः यह विचारधारा सांख्य दर्शन का पूर्ववर्ती रूप है। इसमें पंचमहाभूतवादियों की दृष्टि से आत्मा को असत् माना गया है तथा पंचमहाभूत एवं षष्ठ आत्मा को मानने वालों की दृष्टि से आत्मा को अकर्ता कहा गया है । सूत्रकृतांग इनके अतिरिक्त ईश्वर कारणवादी और नियतिवादी जीवन दृष्टियों को भी कर्म सिद्धान्त का विरोधी होने के कारण मिथ्यात्व का प्रतिपादक ही मानता है । इस प्रकार ऋषिभाषित के देशोत्कल और सूत्रकृतांग के पंचमहाभूत एवं षष्ठ आत्मवादियों के उपरोक्त विवरण में पर्याप्त रूप से निकटता देखी जा सकती है। जैनों की मान्यता यह थी कि वे सभी विचारक मिथ्यादृष्टि हैं, जिनकी दार्शनिक मान्यताओं में धर्माधर्म व्यवस्था या कर्म सिद्धान्त की अवधारणा स्पष्ट नहीं होती है। हम यहाँ यह देखते हैं कि यद्यपि सूत्रकृतांग में शरीर - आत्मवाद की स्थापना करते हुए देह और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, इस मान्यता का तार्किक रूप से निरसन किया गया है, किन्तु यह मान्यता क्यों समुचित नहीं है ? इस सम्बन्ध में स्पष्टतया कोई भी तर्क नहीं दिये गये। सूत्रकृतांग देहात्मवाद के समर्थन में तो तर्क देता है किन्तु उसके निरसन में कोई तर्क नहीं देता। यहाँ हमने आचारांग, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन की अपेक्षा से चार्वाक दर्शन की चर्चा की है, ऋषिभाषित और राजप्रश्नीय की अपेक्षा से चार्वाक दर्शन की समीक्षा अग्रिम लेखों में करेंगे। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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