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________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा : १२७ है और न पुण्य और पाप ही है। इस प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं का उल्लेख तो मिलता है किन्तु यहाँ भी उनकी कोई स्पष्ट तार्किक समालोचना परिलक्षित नहीं होती। यद्यपि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार्वाक दर्शन की समीक्षा प्रस्तुत की गई है, किन्तु विद्वानों ने उसे किंचित् परवर्ती माना है। अत: उसके पूर्व हम उत्तराध्ययन का विवरण प्रस्तुत करेंगे। उत्तराध्ययन में लोकायतदर्शन उत्तराध्ययन में चार्वाक दर्शन को जन-श्रद्धा (जन-सद्धि) कहा गया है। सम्भवत: लोकसंज्ञा और जनश्रद्धा ये लोकायत दर्शन के ही पूर्व नाम हैं। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ये सांसारिक विषय ही हमारे प्रत्यक्ष के विषय हैं। परलोक को तो हमने देखा ही नहीं। वर्तमान के काम भोग हस्तगत हैं जबकि भविष्य में मिलने वाले (स्वर्ग-सुख) अनागत अर्थात् संदिग्ध हैं। कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं ? इसलिए मैं तो जनश्रद्धा के साथ होकर रहूँगा। इस प्रकार उत्तराध्ययन के पंचम अध्याय में चार्वाकों की पुनर्जन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख एवं खण्डन किया गया है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में भी चार्वाकों के असत् से सत् की उत्पत्ति का एवं पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है, जो वस्तुत: असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त है। यद्यपि उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता है। उसमें कहा गया है कि जैसे - अरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता हैं। सम्भवत: उत्तराध्ययन में चार्वाकों के असत्कार्यवाद की स्थापना के पक्ष में ये सत्कार्यवाद की सिद्धि करने वाले उदाहरण इसीलिये दिये गये होंगे, ताकि इनकी समालोचना सरलता पूर्वक की जा सके। उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं माना गया है और अमूर्त होने से नित्य कहा गया है।१२ उपरोक्त विवरण से चार्वाकों के सन्दर्भ में निम्न जानकारी मिलती है - १. चार्वाक दर्शन को “लोकसंज्ञा" और "जनश्रद्धा' के नाम से अभिहित किया जाता था। २. चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानता था अपितु पंचमहाभूतों से चेतना की उत्पत्ति बताता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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