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________________ १२२ हैं। इसमें जो षड्जीव निकाय का विवेचन है उसकी अधिकांश गाथायें उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्याय, प्रज्ञापना, आवश्यकनियुक्ति और जीवसमास में हैं। इसी प्रकार पांच समिति, गुप्ति आदि का जो विवेचन उपलब्ध होता है वह भी उत्तराध्ययन और दशवैकालिक में किंचित् भेद के साथ उपलब्ध होता है। मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार की ८३ गाथाओं में से कुछ गाथायें श्वेताम्बर परम्परा की पिण्डनिर्युक्ति नामक ग्रन्थ में यथावत् उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार की अधिकांश सामग्री श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, पिण्डनिर्युक्ति, आउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, आवश्यकनिर्युक्ति, चन्द्रावेध्यक आदि श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों से संकलित हैं। आश्चर्य तो यह लगता है कि हमारी दिगम्बर परम्परा के विद्वान मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से मात्र २१ गाथायें समान रूप से उपलब्ध होने पर इसे कुन्दकुन्द की कृति सिद्ध करने का साहस करते हैं और जिस परम्परा के ग्रन्थों से इसकी आधी से अधिक गाथायें समान रूप से मिलती हैं उसके साथ इसकी निकटता को भी दृष्टि से ओझल कर देते हैं। मूलाचार की रचना उसी परम्परा में सम्भव हो सकती है जिस परम्परा में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनिर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति, महापच्चक्खाण, आउरपच्चक्खाण आदि ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा रही है। नवीन खोजों से यह स्पष्ट हो चुका है कि यापनीय परम्परा में इन ग्रन्थों का अध्ययन होता था । मूलाचार की भाषा यह स्पष्ट है कि मूलाचार की भाषा शौरसेनी प्राकृत है फिर भी कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की शौरसेनी प्राकृत और मूलाचार की शौरसेनी प्राकृत में थोड़ा अन्तर परिलक्षित होता है। उदाहरण के रूप मे मूलाचार के पंचाचार अधिकार की ५० वीं गाथा के तीन चरण लगभग समान हैं किन्तु चौथा भिन्न है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं - रागी बंधइ कम्मं मुच्चई जीवो विराग संपण्णो । एसो जिणोवएसो समासदो, बंधमोक्रवाणं ॥ ५० ॥ (मूलाचार- पंचाचाराधिकार) रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदिजीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोवदेसो, तम्हा कम्मेसु, मा रज्ज ।। १५० ।। ( समयसार ) यदि हम इन दोनों गाथाओं पर विचार करते हैं तो देखते हैं कि मूलाचार की शौरसेनी पर अर्धमागधी एवं महाराष्ट्री का स्पष्ट प्रभाव है। मूलाचार की गाथा में रागी, बंधई, मुच्चई, जिणोवएसो ये चारो शब्द महाराष्ट्री प्राकृत के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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