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________________ मूलाचार : एक अध्ययन : ११९ की व्याख्याओं में अथवा अन्य टीकाओं में उनके उद्धरण क्यों नहीं आये? पुनः जो भद्रबाहु दिगम्बर श्वेताम्बर के विभाजन के पूर्व हुए हैं, वे भद्रबाहु नियुक्तियों के रचनाकार नहीं हैं, वे अन्य भद्रबाहु की रचनाएँ हैं, क्योंकि स्वयं नियुक्तियों में ही उन्होंने भद्रबाहु की वन्दना की है। यह तो सम्भव नहीं था कि लेखक स्वंय ही अपने को प्रणाम करे। अत: यह निश्चित है कि न केवल मूलाचार में नियुक्तियों और प्रकीर्णकों की गाथाएं सम्मिलित की गई हैं, अपितु उसकी रचना भी इनके बाद की ही है। यदि नियुक्तियां दिगम्बर परम्परा में मान्य और प्रचलित थीं, तो ऐसा कौन सा कारण उपस्थित हो गया कि उस परम्परा ने उन नियुक्तियों का त्याग कर दिया। यदि यह कहा जाए कि जिन ग्रन्थों पर ये निर्यक्तियां थीं उन ग्रन्थों के लुप्त हो जाने से ये नियुक्तियां भी लुप्त हो गई हों तो यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि अनेक ग्रन्थ लुप्त हो गये और उनकी व्याख्याएँ आज भी उपलब्ध हैं, पुन: यदि यह माना जाए कि जिन ग्रन्थों पर नियुक्तियां लिखी गईं उन्हें अस्वीकार कर देने के कारण उनकी नियुक्तियों को भी अस्वीकार कर दिया, तो इसका फलित यह होगा कि वे नियुक्तियां उनकी अपनी परम्परा की नहीं थीं। मूलाचार और उसकी परम्परा मूलाचार को वर्तमान दिगम्बर जैन परम्परा में आगम स्थानीय ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। यह ग्रन्थ मुख्यत: अचेल परम्परा के साधु-साध्वियों के आचार से सम्बन्धित है। यह भी निर्विवाद सत्य है कि दिगम्बर परम्परा में इस ग्रन्थ का उतना ही महत्त्व है जितना कि श्वेताम्बर परम्परा में आचारांग का। यही कारण है कि धवला और जयधवला (दसवीं शताब्दी) में इसकी गाथाओं को आचारांग की गाथा कहकर उद्धृत किया गया है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जब आचारांग को लुप्त मान लिया गया है तो उसके स्थान पर मूलाचार को ही आचारांग के रूप में देखा जाने लगा। वस्तुत: आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कंध में अचेलता का प्रतिपादन होते हुए भी मुनि के वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी कुछ उल्लेख, फिर चाहे वे आपवादिक स्थिति के क्यों न हों, पाये ही जाते हैं। यही कारण था कि अचेलकत्व पर अत्यधिक बल देने वाली दिगम्बर परम्परा अपने सम्प्रदाय में इसे मान्य न कर सकी और उसके स्थान पर मूलाचार को ही अपनी परम्परा का मुनि आचार सम्बन्धी ग्रन्थ मान लिया। आर्यिका ज्ञानमती जी ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार की भूमिका में यह लिखा है कि आचारांग के आधार पर चौदह सौ गाथाओं में ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ की रचना की; किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यह ग्रन्थ आचारांग और विशेष रूप से उसके प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कंध के आधार पर तो बिलकुल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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