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मूलाचार : एक अध्ययन : ११३
(दशाश्रुतस्कंध) व्यवहार कल्प, जीतकल्प, निशीथ, महानिशीथ, आवश्यक आदि सभी मुनि आचार से सम्बन्धित हैं।
किन्तु दुर्भाग्य से दिगम्बर परम्परा के पास इन आचार प्रधान प्राचीन ग्रन्थों की कमी है। पण्डित नाथूराम जी प्रेमी के शब्दों में दिगम्बर परम्परा में मुनियों के आचार सम्बन्धी ग्रन्थों की बहुत कमी है। प्राचीन ग्रन्थों में ले देकर मूलाचार ही एक ग्रन्थ है जो प्राचीन जान पड़ता है। वीरनन्दि का आचारशास्त्र, आशाधर का अनगारधर्मामृत आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थ इसीके आधार पर लिखे गये हैं। मूलाचार का दिगम्बर परम्परा या अचेल परम्परा में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है वह तो इससे ही सिद्ध हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर टीकाओं तथा षटखण्डागम की धवला टीका में आचारांग के नाम से मूलाचार की गाथाओं को ही उद्धृत किया गया है। मेरी जानकारी में सम्पूर्ण दिगम्बर जैन साहित्य में मुनि आचार का प्रतिपादक मूलाचार को छोड़कर अन्य कोई भी प्राचीन ग्रन्थ नहीं है। यद्यपि यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या मूलाचार वस्तुत: आचार्य कुन्दकुन्द की वर्तमान दिगम्बर जैन परम्परा का ग्रन्थ हो सकता है। इस प्रश्न पर हम आगे गम्भीरता से विचार करेंगे। फिर भी यह निर्विवाद है कि आज दिगम्बर जैन परम्परा इसे मुनि आचार के प्रतिपादक आगम स्थानीय ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करती है। इससे इस ग्रन्थ की महत्ता स्वंय ही स्पष्ट हो जाती है ।
यह भी प्रसन्नता का विषय है कि पूर्व के तीन संस्करणों "मुनि अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला गिरगाँव, मुम्बई ई. सन् १९१९; माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला १९१२, शान्तिसागर जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, फलटन १९५४ ई. के तीन स्थानों से प्रकाशित होने के पश्चात् अब यह मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत भारतीय ज्ञानपीठ से पुन: प्रकाशित हुआ है। जहाँ तक इस ग्रन्थ के समीक्षात्मक अध्ययन का प्रश्न है, पं. नाथूराम प्रेमी, पण्डित सुखलाल जी संघवी आदि कुछ विद्वानों के शोधपरक लेखों के अतिरिक्त यह ग्रन्थ उपेक्षित ही रहा। यद्यपि इन दोनों विद्वानों ने अपने लघु निबन्धों में इससे सम्बन्धित कुछ प्रश्नों पर अत्यन्त गम्भीरता से विचार किया है। यह हमारे लिए प्रसन्नता का विषय है कि डॉ. फूलचन्द 'प्रेमी' ने इस ग्रन्थ को अपने शोध-प्रबन्ध का विषय बनाया और गम्भीरता पूर्वक इसके विविध पक्षों का अध्ययन किया। इससे अधिक प्रसन्नता का विषय यह है कि उनका यह शोध-प्रबन्ध हमारे समक्ष पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है। यह एक भिन्न प्रश्न हो सकता है कि हम डॉ. फूलचन्द 'प्रेमी' के निष्कर्षों से कितने और कितनी सीमा तक सहमत हैं,
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