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वस्तुत: द्वैतवादी दर्शनों- चाहे वे सांख्य हों या जैन, की कठिनाई यह है कि उन में तत्त्वों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया या आंशिक तादात्म्य माने बिना संसार और बन्धन की व्याख्या सम्भव नहीं होती है और दोनों को एक दूसरे से निरपेक्ष या स्वतंत्र माने बिना मुक्ति की अवधारणा सिद्ध नहीं होती है। अत: किसी न किसी स्तर पर उनमें अभेद और किसी न किसी स्तर पर उनमें भेद मानना आवश्यक है। यही भेदाभेद की दृष्टि ही अनेकान्त की आधार भूमि है,जिसे किसी न किसी रूप में सभी दर्शनों को स्वीकार करना ही होता है। सांख्य दर्शन चाहे बुद्धि, अहंकार आदि को प्रकृति का विकार माने किन्तु संसारी पुरुष को उससे असम्पृक्त नहीं कहा जा सकता है। योगसूत्र साधनपाद के सूत्र २० के भाष्य में कहा गया है
__ "स पुरुषो बुद्धेः प्रति संवेदी सबुद्धेर्नस्वरूपो नात्यन्त विरूप इति। न तावत्स्वरूपः कस्मात् ज्ञाता-ज्ञात विषयत्वात्-अस्तुतर्हि विरूप इति नात्यन्तं विरूपः, कस्मात् शुद्धोऽप्यसौ प्रत्ययानुपश्यो यतः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति।"
अत: प्रकृति और पुरुष दो स्वतन्त्र तत्त्व होकर भी उनमें पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया घटित होती है। उन दो तत्त्वों के बीच भेदाभेद यहीं बन्धन और मुक्ति की व्याख्याओं का आधार है। योग दर्शन और अनेकान्तवाद
जैन दर्शन में द्रव्य और गुण या पर्याय, दूसरे शब्दों में धर्म और धर्मी में एकान्त भेद या एकान्त अभेद को स्वीकार नहीं करके उनमें भेदाभेद स्वीकार करता है और यही उसके अनेकान्तवाद का आधार है। यही दृष्टिकोण हमें योगसूत्र भाष्य में भी मिलता है
___ " धर्मी त्र्यध्वा धर्मास्तु त्र्यध्वान ते लक्षिता अलक्षिताच तान्तामवस्थां प्राप्नुवन्तो ऽन्यत्वेन प्रति निर्दिश्यन्ते अवस्थान्तरतो न द्रव्यान्तरतः । यथैक रेखा शत स्थाने शतं दश स्थाने दशैक चैकस्थाने। यथाचैकत्वेपि स्त्री माता चोच्यते दुहिता च स्वसाचेति।"
योगसूत्र विभूतिपाद १३ का भाष्य इसी तथ्य को उसमें इस प्रकार भी प्रकट किया गया है- "यथा सुवर्ण भाजनस्य भित्वान्यथा क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्यथात्वम्" इन दोनों सन्दर्भो से यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार एक ही स्त्री अपेक्षा भेद से माता, पुत्री अथवा सास कहलाती है उसी प्रकार एक ही द्रव्य अवस्थान्तर को प्राप्त होकर भी वहीं रहता है। एक स्वर्णपात्र को तोड़कर जब कोई अन्य वस्तु बनाई जाती है तो उसकी अवस्था बदलती है किन्तु स्वर्ण वही रहता है अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा वह वही रहता है अर्थात् नहीं बदलता है, किन्तु अवस्था बदलती है। यही सत्ता का नित्यानित्यत्व या भेदाभेद है जो जैन दर्शन में अनेकान्तवाद
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