________________
७१
जाये इसके भी कारण है। सर्वप्रथम तो हमें उस लेख की भाषा के स्वरूप, क्षेत्र एवं काल का विचार करना होगा, फिर यह देखना होगा कि उस काल में उस क्षेत्र में किस प्रकार की भाषा प्रचलित थी क्योंकि देश और काल के भेद से भाषा का स्वरूप बदलता है और उसकी उच्चारण शैली भी बदलती है।
पं० जगमोहन वर्मा (प्राचीन भारतीय लिपिमाला, पृ० ३०) का तो यहाँ तक कहना है कि ट, ठ, ड, ढ, ण ये मूर्धन्य वर्ण पाश्चात्य अनार्यों के प्रभाव से भारतीय आर्य भाषा में सम्मिलित किये गये। उनकी यह अवधारणा कितनी सत्य है यह विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु आनुभाविक स्तर पर इतना तो सत्य है उत्तर-पश्चिम की बोलियों और भाषाओं में आज भी इनका प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक होता हैं । प्राकृतों में भी परवर्ती प्राकृतों और अपभ्रंशों में ही अपेक्षाकृत इनका प्रयोग अधिक होता है।
खरोष्ठी लिपि में 'न' को मूर्धन्य 'ण' पढ़ा जाये अथवा दन्त्य 'न' पढ़ा जाये, इसका समाधान यह है कि जहाँ तक साहबाजगढ़ी और मान्सेरा के अशोक के अभिलेखों का प्रश्न है, वे चाहे खरोष्ठी लिपि में लिखे गये हैं, किन्तु उनकी भाषा मूलतः मागधी ही है, अत: उस काल की मागधी भाषा की प्रकृति के अनुसार उनमें आये हुए 'न' को दन्त्य 'न' ही पढ़ना होगा । पुनः वे ही लेख जिन-जिन स्थानों पर ब्राह्मीलिपि उत्कीर्ण हुए है और यदि वहाँ उनमें आये 'न' को यदि दन्त्य 'न' के रूप में उत्कीर्ण किया गया है, तो यहाँ भी हमें उन्हें दन्त्य 'न' के रूप में पढ़ना होगा, क्योंकि उच्चारण/पठन भाषा की प्रकृति के आधार पर होता है, लिपि की प्रकृति के आधार पर नहीं। आज भी अंग्रेजी में उच्चारण भाषा की प्रकृति के आधार पर ही होता है। अक्षर की आकृति के आधार पर नहीं। उदाहरणार्थ 'C' का उच्चारण कभी 'क' कभी 'श' और कभी 'च' होता है। यहाँ भी हमें यह स्वतन्त्रता नहीं है कि अपनी इच्छा से कोई भी उच्चारण कर लें।
एक दूसरा उदाहरण लें, यदि संस्कृत या हिन्दी भाषा का कोई शब्द रोमन में लिखा गया है और यदि उसके लेखन में डाईक्रिटिकल चिह्नों का उपयोग नहीं किया गया है तो हमें उन रोमन वर्णों का उच्चारण संस्कृत या हिन्दी की प्रकृति के आधार पर करना होगा, रोमन लिपि के आधार पर नहीं। अतः मागधी भाषा के खरोष्ठी लिपि में लिखे गये लेख का उच्चारण तो मागधी की प्रकृति के आधार पर ही होगा और मागधी की प्रकृति के आधार पर वहाँ 'न' ही पढ़ना होगा, 'ण' नहीं।
पुन: खरोष्ठी लिपि में पैशाची प्राकृत के भी लेख हैं, उनका उच्चारण पैशाची प्राकृत के आधार पर ही होगा। ज्ञातव्य है कि पैशाची प्राकृत में तो 'ण' का भी 'न' होता है। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर स्वयं डॉ० सुदीपजी द्वारा उद्धृत प्राकृतशब्दानुशासन का सूत्र दे रहा हूँ न णो: पैशाच्यां (३/२/४३) अर्थात्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org