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प्रो० ए०एम० उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टतः यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो० खड़बड़ी ने तो 'षट्खण्डागम' की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना है।
'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन?
अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सुदीपजी, आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार और णकार दोनों पाये जाते हैं; किन्तु दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में सर्वत्र णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता है कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमी के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था। 'ण' की अपेक्षा 'न' का प्रयोग प्राचीन है। ई० पू० तृतीय शती के अशोक के अभिलेख एवं ई०पू० द्वितीय शती के खारवेल के शिलालेख से लेकर मथुरा के शिलालेख ( ई०पू० दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती तक )- इन लगभग ८० जैन शिलालेखों में दन्त्य नकार के स्थान पर एक भी णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा " णमो”, “अरिहंताणं" और " णमो वड्ढमाणं" का सर्वथा अभाव है। यहाँ हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, जिनमें इन शब्दों का प्रयोग हुआ है- ज्ञातव्य है कि ये सभी अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेख संग्रह, भाग - २ से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित है
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१. हाथीगुम्फा उड़ीसा का शिलालेख- प्राकृत, जैन सम्राट् खारवेल, मौर्यकाल १६५वां वर्ष, पृ० ४, लेख- क्रमांक २, 'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं" वैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरि, उड़ीसा - प्राकृत, मौर्यकाल १६५वां वर्ष लगभग ई०पू० दूसरी शती, पृ० ११, ले०क्र०-३, 'अरहन्तपसादन' मथुरा, प्राकृत, महाक्षत्रप शोडाशके, ८१ वर्ष का पृ० १२, क्रमांक- ५, 'नम अहरतो वधमानस'
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७.
मथुरा, प्राकृत, काल निर्देश नहीं दिया है; किन्तु जे०एफ० फ्लीट के अनुसार लगभग १३ - १४ ई० पूर्व प्रथम शती का होना चाहिए। पृ० १५, क्रमांक - ९, 'नमोअरहतो वधमानस्य'
मथुरा, प्राकृत, सम्भवतः १३-१४ ई०पू० प्रथम शती पृ०-१५ लेख क्रमांक १०, ' मा अरहतपूजा (ये) '
मथुरा, प्राकृत, पृ०-१७, क्रमांक - १४, 'मा अहरतानं (अरहंतानं ) श्रमणश्राविका (य)
मथुरा, प्राकृत, पृ० १७, क्रमांक- १५, 'नमो अरहंतानं'
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