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२२१ वें द्वार में जीवों के क्षायिक आदि छः प्रकार के भावों का विवेचन है। इसके साथ ही इस द्वार में विभिन्न गुणस्थानों में पाये जाने वाले विभिन्न भावों का भी विवेचन किया गया है।
२२२ वां एवं २२३ वां द्वार क्रमशः जीवों के चौदह और अजीवों के चौदह प्रकार का विवेचन करता है।
२२४ वें द्वार में १४ गुणस्थानों का, २२५ वें द्वार में चौदह मार्गणाओं का, २२६ वें द्वार में बारह उपयोगों का और २२७ वें द्वार में पन्द्रह योगों का विवेचन है। २३७ वें द्वार में अट्ठारह प्रकार के पापों का विवेचन है।
२३८ वें द्वार में मुनि के सत्ताइस मूल गुणों का विवेचन है।
२३९ वें द्वार में श्रावक के इक्कीस गुणों का विवेचन किया गया है।
२४० वें द्वार में तिर्यंच जीवों की गर्भ स्थिति के उत्कृष्ट काल का विवेचन किया गया है जबकि २४१ वें द्वार में मनुष्यों की गर्भ स्थिति के सम्बन्ध में विवेचन है । २४२वां द्वार मनुष्य की काय स्थिति को स्पष्ट करता है।
२४३ वें द्वार में गर्भ में स्थिति जीव के आहार के स्वरूप का विवेचन हैं तो २४४ वें द्वार में गर्भ का धारण कब सम्भव होता है इसका विवरण दिया गया है । २४५ और २४६ वें द्वार में क्रमशः यह बताया गया है कि एक पिता के कितने पुत्र हो सकते हैं? और एक पुत्र के कितने पिता हो सकते हैं। आधुनिक जीव विज्ञान की दृष्टि से यह एक रोचक विषय है।
२४७ वें द्वार में स्त्री-पुरुष कब संतानोत्पत्ति के अयोग्य होते हैं इसका विवेचन किया गया है । २४८ वें द्वार में वीर्य आदि की मात्रा के सम्बन्ध में चर्चा की गई है इसमें यह भी बताया है कि एक शरीर में रक्त, वीर्य आदि की कितनी मात्रा होती है।
२४९ वें द्वार में सम्यक्त्व आदि की उपलब्धि में किस अपेक्षा से कितना अन्तराल होता है इसका विवेचन किया गया है।
२५० वें द्वार में मनुष्य भव में किनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है।
२५१ वें द्वार में ग्यारह अंगों के परिमाण का और २५२ वें द्वार में चौदह पूर्वों के परिमाण का विवेचन है। इनमें मुख्य रूप से यह बताया है कि किस अंग और किस पूर्व की कितनी श्लोक संख्या होती है।
२५३ वें द्वार में लवण शिखा के परिमाण का उल्लेख है।
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