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________________ १४० गई है। १६८ वें द्वार में ब्रह्मचर्य के अट्ठारह प्रकारों की चर्चा है और १६९ वें द्वार में काम के चौबीस भेदों का विवेचन किया गया है। इसी क्रम में आगे १७० वें द्वार में दस प्रकार के प्राणों की चर्चा की गई है। जैन दर्शन में पाँच इन्द्रियाँ, मन-वचन और काया-ऐसे तीन बल, श्वासोश्वास और आयु ऐसे दस प्राण माने गये हैं। १७१ वें द्वार में दस प्रकार के कल्पवृक्षों की चर्चा है। १७२ वें द्वार में सात नरक भूमियों के नाम और गोत्र का विवेचन किया गया है। आगे १७३ से लेकर १८२ तक के सभी द्वार नारकीय जीवन के विवेचन से सम्बद्ध हैं। १७३ वें द्वार में नरक के आवासों का, १७४ वें द्वार में नारकीय वेदना का, १७५ वें द्वार में नारकों की आयु का, १७६ वें द्वार में नारकीय जीवों के शरीर की लम्बाई आदि का विवेचन किया गया है। पुनः १७७ वें द्वार में नरकगति, प्रतिसमय उत्पत्ति और अन्तराल का विवेचन है। १७८ वां द्वार किस नरक के जीवों में कौन सी द्रव्य लेश्या पाई जाती है इसका विवेचन करता है, जबकि १७९ वां द्वार नारक जीवों के अवधिज्ञान के स्वरूप का विवेचन करता है। १८० वें द्वार में नारकीय जीवों को दण्डित करने वाले परमाधामी देवों का विवेचन किया गया है। १८१ वें द्वार में नारकीय जीवों की उपलब्धि अर्थात् शक्ति का विवेचन है जबकि १८२ वें, १८३ और १८४ वें द्वारों में नारकीय जीवों के उपपात अर्थात जन्म का विवेचन प्रस्तुत है। इसमें यह बताया गया है कि जीव किन योनियों से मरकर कौन से नरक में उत्पन्न होता है और नारकीय जीव मरकर तिर्यंच और मनुष्य योनियों में कहाँ-कहाँ जन्म लेते हैं। १८५ से १९१ तक के सात द्वारों में क्रमश: एकेन्द्रिय जीवों की काय स्थिति, भवस्थिति, शरीर परिणाम, इन्द्रियों के स्वरूप, इन्द्रियों के विषय, एकेन्द्रिय जीवों की लेश्या तथा उनकी गति और आगति का विवेचन उपलब्ध होता है। १९२ और १९३ वें द्वारों में विकलेन्द्रिय आदि की उत्पत्ति, च्यवन एवं विरहकाल (अन्तराल) का तथा जन्म और मृत्यु प्राप्त करने वालों की संख्या का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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