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अनन्तकायों की और बावीस अभक्ष्यों की भी चर्चा की गई है। साथ ही इसमें शुद्ध प्रत्याख्यान के कारण एवं स्वरूप का विवेचन भी है । पाँचवां कायोत्सर्ग द्वार है। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से कायोत्सर्ग के १९ दोषों की चर्चा की गई है इसी क्रम में इन दोषों के स्वरूप का भी किञ्चित् दिग्दर्शन कराया गया है।
प्रवचनसारोद्धार का छठां द्वार श्रावक प्रतिक्रमण के अतिचारों का वर्णन करता है। इसके अन्तर्गत संलेखना के पाँच, कर्मादान के पन्द्रह, ज्ञानाचार के आठ, दर्शनाचार के आठ, चारित्राचार के आठ, तप के बारह, वीर्य के तीन, सम्यकत्त्व के पाँच, अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतों, दिक्वत आदि तीन गुणव्रतों, सामायिक आदि चार शिक्षाव्रतों- ऐसे श्रावक के बारह व्रतों के साठ अतिचारों का उल्लेख है । यह समस्त विवरण श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र के अनुरूप ही है।
प्रवचनसारोद्धार के सप्तमद्वार में भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में हुए तीर्थंकरों (जिन) के नामों की सूची प्रस्तुत की गई है इसके अन्तर्गत जहाँ भरत क्षेत्र के अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों चौबीसियों के जिनों के नाम दिये गये हैं वहीं ऐरावत क्षेत्र के वर्तमान काल के जिनों के ही नाम दिये गये हैं।
हम देखते हैं कि प्रवचनसारोद्धार के प्रथम सात द्वारों तक तो अपने भेदप्रभेदों के साथ विषयों का विस्तार से विवेचन हुआ है । किन्तु आठवें द्वार से विवेचन संक्षिप्त रूप में ही किया गया है।
इसी क्रम में अष्टम द्वार में चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम गणधरों के नामों का भी उल्लेख है।
नवम द्वार के अन्तर्गत प्रत्येक तीर्थंकर की प्रवर्तनियों अर्थात् साध्वीप्रमुखाओं के नामों का उल्लेख किया गया है।
दशम-द्वार के अन्तर्गत तीर्थंकर नामकर्म के उपार्जन हेतु जिन बीस स्थानकों की साधना की जाती है, उनकी चर्चा है। यह विवेचन ज्ञाताधर्मकथा के मल्ली अध्ययन में मिलता है।
ग्यारहवें द्वार में तीर्थंकरों की माताओं का उल्लेख है।
बारहवें - द्वार में तीर्थंकरों की माताएँ अपने देह का त्याग कर किस गति में उत्पन्न हुईं, इसकी चर्चा है।
तेरहवां-द्वार किसी काल विशेष में जिनों की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या का विचार करता है।
चौहदवें- द्वार के अन्तर्गत यह बताया गया है कि किस जिन के जन्म के समय लोक में अधिकतम और न्यूनतम जिनों की संख्या कितनी थी ।
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