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________________ १२३ में इस टीका के रचनाकाल का शब्दों के माध्यम से "करिसागर रविसंख्ये" ऐसा निर्देश किया गया है। यहाँ यह मतभेद इसलिए है कि सागर शब्द से कुछ लोग चार और कुछ लोग सात की संख्या का ग्रहण करते हैं। सागर से चार संख्या का ग्रहण करने पर टीका का रचनाकाल वि० सं० १२४८ और सात संख्या ग्रहण करने पर टीका का रचनाकाल वि०सं० १२७८ निर्धारित होता है। इनमें से चाहे कोई भी संवत् निश्चित हो किन्तु इतना निश्चित है कि विक्रम की तेरहवीं शती के उत्तरार्ध में यह टीका ग्रन्थ निर्मित हो चुका था। मेरी दृष्टि में यदि प्रवचनसारोद्धार बृहद्गच्छीय नेमिचन्द्रसूरि (द्वितीय) के जीवन के उत्तरार्ध की और अनंतनाहचरियं के बाद की रचना है तो वह विक्रम संवत् १२१६ के पश्चात् लगभग वि० सं० १२३० के आसपास कभी लिखा गया होगा क्योंकि अनंतनाहचरियं को समाप्त करके इसे लिखने में १०-१५ वर्ष अवश्य लगे होंगे। पुनः मूलग्रन्थ और उसकी टीका के रचनाकाल के मध्य भी कम से कम १५ - २० वर्ष का अन्तर तो अवश्य ही मानना होगा। मूलग्रन्थ और उसकी टीका उसी स्थिति में समकालिक हो सकते हैं जबकि टीका या तो स्वोपज्ञ हो या अपने शिष्य या गुरुभ्राता के द्वारा लिखी गई हो । प्रस्तुत कृति के टीकाकार सिद्धसेनसूरि नेमीचन्द्रसूरि की बृहदगच्छीय देवसूरि की परम्परा से भिन्न चन्द्रगच्छीय अभयदेवसूरि की शिष्य परम्परा के थे। टीकाकार सिद्धसेनसूरि की गुरू परम्परा इस प्रकार हैचन्द्रगच्छीय अभयदेवसूरि Jain Education International धनेश्वरसूरि (मुञ्जनृप के समकालीन) अजितसिंहसूर देवचन्द्र चन्द्रप्रेभ (मुनिपति) भद्रेश्वरसूरि अजितसिंहसूरि 1 देवप्रभसूरि ( प्रमाणप्रकाश एवं श्रेयासंचरित्र के कर्ता) सिद्धसेनसूरि (प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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