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प्रवचनसारोद्धारः एक अध्ययन
प्रवचनसारोद्धार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, जैन धर्म एवं दर्शन का सारभूत, किन्तु आकर ग्रन्थ है। इसका विषय वैविध्य एवं कर्ता की व्यापक संग्राहक दृष्टि, इसे जैन विद्या के लघु विश्व-कोष की श्रेणी में लाकर रख देती है। वस्तुत: यह एक संग्रह ग्रन्थ है, जिसमें जैन विद्या के विविध आयामों को समाहित करने का लेखक ने अनुपम प्रयास किया। यद्यपि इसके पूर्व आचार्य हरिभद्रसूरि (विक्रम संवत् की आठवीं शती) ने अपने ग्रन्थों अष्टक, षोड्शक, विंशिका, पंचासक आदि में जैन धर्म, दर्शन और साधना के विविध पक्षों को समाहित करने प्रयत्न किया है, फिर भी विषय वैविध्य की अपेक्षा से ये ग्रन्थ भी इतने व्यापक नहीं हैं, जितना प्रवचनसारोद्धार है। इसमें २७६ द्वार हैं और प्रत्येक द्वार एक-एक विषय का विवेचन प्रस्तुत करता है, इस प्रकार प्रस्तुत कृति में जैन विद्या से सम्बन्धित २७६ विषयों का विवेचन है। इससे इसका बहुआयामी स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
प्रस्तुत कृति १५७७ प्राकृत गाथाओं में निषद्ध है। मात्र गाथा (श्लोक) क्रमांक ७७१ संस्कृत में है। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । छन्दों की अपेक्षा से इसमें आर्या छन्द की ही प्रमुखता है, यद्यपि अन्य छन्द भी उपलब्ध होते हैं। इस कृति के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा में ई० पू० छठी शती से लेकर ईसा की तेरहवीं शती तक लगभग दो हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में प्राकृत में ग्रन्थ लेखन की जीवित परम्परा रही है। मात्र यही नहीं, इसके पश्चात् आज तक भी प्राकृत भाषा में ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं जो जैन विद्वानों की प्राकृत के प्रति प्रतिबद्धता के सूचक हैं। प्रस्तुत कृति के लेखक ने इसके अतिरिक्त अनंतनाहचरियं नामक एक अन्य ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में रचा है इससे लेखक को प्राकृत भाषा और विषय दोनों पर अधिकार सिद्ध होता है। साथ ही प्रस्तुत कृति में विविध विषयों का संग्रह उसकी बहुश्रुतता का भी परिचय देता है।
प्रवचनसारोद्धार के रचयिता :
प्रवचनसारोद्धार नामक प्रस्तुत कृति के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्रसूरि हैं किन्तु ये नेमिचन्द्रसूरि कौन हैं और कब हुए ? इस सम्बन्ध में थोड़ी विस्तृत विवेचना अपेक्षित है।
'यद्यपि प्रवचनसारोद्धार की प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने इसके रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है किन्तु उन्होंने अपना और अपनी गुरु परम्परा का संक्षिप्त किन्तु
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