SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० शाश्वतवाद, उच्छेदवाद जैसी परस्पर विरोधी विचारधाराओं में से किसी को स्वीकार नहीं करना। त्रिपिटक में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं, जहाँ भगवान् बुद्ध ने एकान्तवाद का निरसन किया है। जब उनसे पूछा गया- क्या आत्मा और शरीर अभिन्न हैं? वे कहते हैं मैं ऐसा नहीं कहता, फिर जब यह पूछा गया - क्या आत्मा और शरीर भिन्नाभिन्न है, उन्होंने कहा मैं ऐसा भी नहीं कहता हूँ । पुन: जब यह पूछा गया है कि आत्मा और शरीर अभिन्न है तो उन्होंने कहा कि मैं ऐसा भी नहीं कहता हूँ । जब उनसे यह पूछा गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित ? तो उन्होंने अनेकान्त शैली में कहा कि यदि गृहस्थ और त्यागी मिथ्यावादी हैं तो वे आराधक नहीं हो सकते यदि दोनों सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो वे आराधक हो सकते हैं (मज्झिमनिकाय १९) । इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने पूछा, भगवन् सोना अच्छा हैं या जागना ? तो उन्होंने कहा कुछ का सोना अच्छा है और कुछ का जागना, पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्मा का जागना । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रारम्भिक बौद्धधर्म एवं जैनधर्म में एकान्तवाद का निरसन और विभज्यवाद के रूप में अनेकान्तदृष्टि का समर्थन देखा जाता है। स्याद्वाद और शून्यवाद यदि बुद्ध और महावीर के दृष्टिकोण में कोई अन्तर देखा जाता है तो वह यही कि बुद्ध ने एकान्तवाद के निरसन पर अधिक बल दिया। उन्होंने या तो मौन रहकर या फिर विभज्यवाद की शैली को अपनाकर एकान्तवाद से बचने का प्रयास किया। बुद्ध की शैली प्रायः एकान्तवाद के निरसन या निषेधपरक रही, परिणामत: उनके दर्शन का विकास शून्यवाद में हुआ, जबकि महावीर की शैली विधानपरक रही अतः उनके दर्शन का विकास अनेकान्त या स्याद्वाद में हुआ। इसी बात को प्रकारान्तर से माध्यमिक कारिका (२/३) में इस प्रकार भी कहा गया है न, सद् नासद् न सदसत् न चानुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदु || अर्थात् परमतत्त्व न सत् है, न असत् है, न सत्-असत् है और न सत्-असत् दोनों नहीं है। 2 यही बात प्रकारान्तर से विधिमुख शैली में जैनाचार्यों ने भी कही हैयदेवतत्तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकं यदेवसत् तदेवासत् यदेवनित्यं तदेवानित्यम् । अर्थात् जो तत् रूप है, वही अतत् रूप भी है, जो एक है, वही अनेक भी है, जो सत् है, वही असत् भी है, जो नित्य है, वही अनित्य भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy