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विकारी सिद्ध होता है। पुन: माया को न सत् कह सकते हैं और न असत्। यदि माया असत् है तो सृष्टि कैसे होगी और यदि माया सत् है तो मुक्ति कैसे होगी? वस्तुत: माया न सत् है और न असत्, न ब्रह्म से भिन्न है और न अभिन्न । यहाँ अनेकान्तवाद जिस बात को विधि मुख से कह रहा है शंकर उसे ही निषेधमुख से कह रहे हैं। अद्वैतवाद की कठिनाई यही है वह माया की स्वीकृति के बिना जगत् की व्याख्या नहीं कर सकता है और माया को सर्वथा असत् या सर्वथा सत् अथवा ब्रह्म से सर्वथा भिन्न या सर्वथा भिन्न ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। वह परमार्थ के स्तर पर असत् और व्यवहार के स्तर पर सत् है। यहीं तो उनके दर्शन की पृष्ठभूमि में अनेकान्त का दर्शन होता है। शंकर इन्हीं कठिनाईयों से बचने हेतु माया को जब अनिर्वचनीय कहते हैं, तो वे किसी न किसी रूप में अनेकान्तवाद को ही स्वीकार करते प्रतीत होते हैं।
आचार्य शंकर के अतिरिक्त भी ब्रह्मसूत्र पर टीका लिखने वाले अनेक आचार्यों ने अपनी व्याख्याओं में अनेकान्त दृष्टि को स्वीकार किया है। महामति भास्कराचार्य ब्रह्मसूत्र के 'तत्तु समन्वयात्' (१/१/४) सूत्र की टीका में लिखते
यदप्युत्तं भेदाभेदयोर्विरोध इति, तदभिधीयते अनिरूपित प्रमाणप्रमेयतत्त्वस्येदं चोद्यम्। अतोभिन्नाभिन्न रूपं ब्रह्मेतिस्थितम् संग्रह श्लोक--
कार्यरूपेण नानात्वमभेदः कारणात्मना । हेमात्मना यथाऽभेद कुण्डलाद्यात्मनाभिदा ।। (पृ० १६-१७)
यद्यपि यह कहा जाता है कि भेद-अभेद में विरोध ही, किन्तु यह बात वही व्यक्ति कह सकता है जो प्रमाण प्रमेय तत्व से सर्वथा अनभिज्ञ है।
इस कथन के पश्चात् अनेक तर्कों से भेदाभेद का समर्थन करते हुए अन्त में कह देते हैं कि अत: ब्रह्म भिन्नाभिन्न रूप से स्थित है यह सिद्ध हो गया। कारण रूप में वह अभेद रूप है और कार्य रूप में वह नाना रूप है, जैसे स्वर्ण कारण रूप में एक है, किन्तु कुण्डल आदि कार्यरूप में अनेक।
यह कथन भास्कराचार्य को प्रकारान्तर से अनेकान्तवाद का सम्पोषक ही सिद्ध करता है। अन्यत्र भी भेदाभेद रूपं ब्रह्मेति समधिगतं (२/१/२२ टीका पृ. १६४) कहकर उन्होंने अनेकान्तदृष्टि का ही पोषण किया है।
___ भास्कराचार्य के समान यतिप्रवर विज्ञानभिक्षु ने ब्रह्मसूत्र पर विज्ञानामृत भाष्य लिखा है । उसमें वे अपने भेदाभेदवाद का न केवल पोषण करते हैं, अपितु अपने
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