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________________ शैली आदि सभी पक्षों पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृष्टि अध्ययन करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि अर्धमागधी आगम साहित्य का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका अंशविशेष किस काल की रचना है। अर्धमागधी आगमों की विषयवस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर परम्परा में हमें स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र, नन्दीचूर्णी एवं तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं, धवला और जयधवला में मिलते हैं। उसमें भी तत्त्वार्थ की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषयवस्तु सम्बन्धी मात्र अनुश्रुतिपरक निर्देश हैं, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर आधारित नहीं। उनमें दिया गया विवरण-तत्त्वार्थभाष्य के आधार पर परम्परा से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध उनके जो विवरण स्थानांग, समवायांग, नन्दी आदि अर्धमागधी आगमों और उनकी व्याख्याओं एवं टीकाओं में हैं वे ग्रन्थों के अवलोकन पर आधारित हैं अत: आगम ग्रन्थों की विषयवस्तु में कालक्रम में क्या परिवर्तन हुआ है इसकी सूचना श्वेताम्बर परम्परा के उपर्युक्त ग्रन्थों से प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किस काल में किस आगम ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुड़ी और अलग हुई है। आचारांग में आयारचूला और निशीथ के जुड़ने, पुनः निशीथ के अलग होने की घटना समवायांग और स्थानांग में समय-समय पर हुए प्रक्षेप, ज्ञाता के द्वितीय वर्ग में जुड़े अध्याय; प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन; अन्तकृतदशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक परिवर्तन इन सबकी प्रमाणिक जानकारी हमें इनके समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। इसमें प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण, लगभग ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में अस्तित्व में आया है। इस प्रकार अर्धमागधी आगम साहित्य लगभग एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, परवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं अर्धमागधी आगम साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है। अत: आगम विशेष या उसके अंशविशेष के रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में विषयवस्तु, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है। उदाहरण के रूप में स्थानांग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि वीर निर्वाण सं० ५८४ तक अस्तित्व में आ चुके थे। किन्तु उसमें बोटिकों एवं उन परवर्ती गणों, कुलों और शाखाओं के उल्लेख नहीं हैं जो वीर निर्वाण सं० ६०९ अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अत: विषयवस्तु की दृष्टि से स्थानांग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा वीर निर्वाण सम्वत् ६०९ के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी सिद्ध होता है। इसी प्रकार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001688
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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