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________________ ९० के आश्रित होकर मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में स्थित परमात्मा (आत्मा) से द्वेष करने वाले होते हैं।३७ अर्थात् मान, क्रोध, लोभ आदि विकारों के वशीभूत होकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाते हैं। यह काम, क्रोध और लोभ आत्मा का नाश करने वाले (आत्मा को विकारी बनाकर उसके स्व-लक्षणों को आवरित करने वाले) नरक के द्वार हैं। अत: इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए। जो इन नरक के द्वारों से मुक्त होकर अपने कल्याण-मार्ग का आचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त करता है। ३८ इस प्रकार क्रोध, मान और लोभ- इन तीन कषायों का विवेचन हमें गीता में मिल जाता है। गीता में माया शब्द का प्रयोग तो हुआ है, लेकिन जिस निम्न-स्तरीय कपट-वृत्ति के अर्थ में जैन दर्शन में उसका प्रयोग किया गया है, उस अर्थ में उसका प्रयोग नहीं हुआ है। वहाँ तो वह दैवी माया (७/१४) है, फिर भी वह नैतिक विकास में बाधक अवश्य मानी गयी है। गीता में कृष्ण कहते हैं कि माया के द्वारा जिनके ज्ञान का अपहरण हो गया है, ऐसे आसुरी स्वभाव से युक्त, दूषित कर्मों का आचरण करने वाले, मनुष्यों में नीच, मूर्ख मुझ परमात्मा को प्राप्त नहीं होते।३९ सारांश यह है कि मनोवृत्तियों के चारों रूप, जिन्हें जैन विचारणा कषाय कहती है, गीता में भी निकृष्ट माने गये हैं और नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए इनका परित्याग करना आवश्यक है। गीताकार की दृष्टि में जो मनुष्य इस शरीर के नाश होने के पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न आवेगों (संवेगों) को सहन करने में समर्थ हैं अर्थात् जो काम एवं क्रोध की भावनाओं से ऊपर उठ गया है, वही योगी है और वही सुखी है। काम-क्रोधादि (कषाय-वृत्तियों से रहित, विजित-चित्त एवं विकार रहित आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला ज्ञानी पुरुष सभी ओर से ब्रह्म-निर्वाण में ही निवास करता है अर्थात् जीवनमुक्त हो जाता है।४० इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में भी जैनदर्शन के समान क्रोध (आवेश), मान (अहंकार), माया (छिपाने की वृत्ति) और लोभ (संग्रह-वृत्ति) आदि आवेगों को वैयक्तिक आध्यात्मिक विकास एवं सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि की दृष्टि से अनुचित माना गया है। यदि व्यक्ति इन आवेगात्मक मनोवृत्तियों को अपने जीवन में स्थान देता है तो एक ओर वैयक्तिक दृष्टि से वह अपने आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध करता है और यथार्थ बोध से वंचित रहता है, दूसरी ओर उसकी इन वृत्तियों के परिणाम सामाजिक जीवन में संक्रान्त होकर क्रमश: संघर्ष (युद्ध), शोषण, घृणा (ऊँच-नीच का भाव) और अविश्वास को उत्पन्न करते हैं जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन-व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है अत: वैयक्तिक-आध्यात्मिक विकास और सामञ्जस्यपूर्ण सामाजिक जीवन प्रणाली के लिए आवेगात्मक मनोवृत्तियों का त्याग आवश्यक है और इनके स्थान पर इनकी प्रतिपक्षी शान्ति, समानता, सरलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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