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भय वेदना भय है । ६. मरण भय- मृत्यु का भय; जैन और बौद्ध विचारणा में मरण-धर्मता का स्मरण तो नैतिक दृष्टि से आवश्यक है, लेकिन मरण भय (मरणाशा एवं जीविताशा) को नैतिक दृष्टि से अनुचित माना गया है। ७. अश्लोक (अपयश ) भय- मान-प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचने का भय । '
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७. स्त्रीवेद- स्त्रीत्व सम्बन्धी काम वासना अर्थात् पुरुष से संभोग की इच्छा। जैन- विचारणा में लिंग और वेद में अन्तर किया गया है। लिंग आगिक संरचना का प्रतीक है, जबकि वेद तत्सम्बन्धी वासनाओं की अवस्था है। यह आवश्यक नहीं है कि स्त्री - लिंग होने पर स्त्रीवेद हो ही । जैन- विचारणा के अनुसार लिंग (आंगिक रचना ) का कारण नाम-कर्म है, जबकि वेद (वासना) का कारण चारित्रमोहनीय कर्म है।
८. पुरुषवेद- पुरुषत्व सम्बन्धी काम वासना अर्थात् स्त्री-संभोग की इच्छा।
९. नपुंसक वेद- प्राणी में स्त्रीत्व सम्बन्धी और पुरुषत्व सम्बन्धी दोनों वासनाओं का होना नपुंसकवेद कहा जाता है। दोनों के संभोग की इच्छा ही नपुंसकवेद है।
जैन- विचारकों के अनुसार तीव्रता की दृष्टि से पुरुष की काम वासना शीघ्र ही प्रदीप्त हो जाती है और शीघ्र ही शान्त हो जाती है। स्त्री की काम-वासना देर से प्रदीप्त होती है, लेकिन एक बार प्रदीप्त हो जाने पर काफी समय तक शान्त नहीं होती । नपुंसक की काम वासना शीघ्र प्रदीप्त हो जाती है, लेकिन शान्त देर से होती है । १३ इस प्रकार भय, शोक, घृणा, हास्य, रति, अरति और काम-विकार- ये उप-आवेग हैं। ये भी व्यक्ति के जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। क्रोध आदि की शक्ति तीव्र होती है, इसलिए वे आवेग हैं। ये व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करने के अतिरिक्त उसके आन्तरिक गुणों-सम्यक् दृष्टिकोण, आत्म-नियन्त्रण आदि को भी प्रभावित करते हैं। भय आदि उप-आवेग व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को उतना प्रत्यक्षतः प्रभावित नहीं करते, जितना शारीरिक और मानसिक स्थिति को करते हैं। उनकी शक्ति अपेक्षाकृत क्षीण होती है, इसलिए वे उप-आवेग कहलाते हैं । १४
कषाय-जय- नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का आधार- जैन आचार - दर्शन के अनुसार उक्त १६ आवेगों (कषाय) और ९ उप- आवेगों (नो- कषाय) का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के चरित्र से है, नैतिक जीवन के लिए इन वासनाओं एवं आवेगों से ऊपर उठना आवश्यक है।
जब तक व्यक्ति इनसे ऊपर नहीं उठता है, वह नैतिक प्रगति नहीं कर सकता । गुणस्थान आरोहण में यह तथ्य स्पष्ट रूप से वर्णित है कि नैतिक विकास की किस अवस्था में कितनी कषायों का क्षय हो जाता है और कितनी शेष रहती हैं। नैतिकता की सर्वोच्च भूमिका समस्त कषायों के समाप्त होने पर ही प्राप्त होती है।
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