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जैन आगमों की सम्यक् समझ बौद्ध त्रिपिटक के अध्ययन के बिना सम्यक रूप से नहीं समझा जा सकता है। जिसने बौद्ध त्रिपिटक को नहीं पढ़ा हो वह ऋषिभाषित के सारिपुत्र
और वाज्जियपुत्र या महाकश्यप के उपदेश के हार्द को कैसे समझेगा। पुन: जिसने उपनिषदों को नहीं पढ़ा हो उसके लिए आचारांग में प्रतिपादित आत्मा का स्वरूप अथवा ऋषिभाषित के नारद, असितदेवल, अरुण, उद्दालक, पराशर, याज्ञवल्क्य आदि के उपदेशों को सम्यक् रूप से समझ पाना कठिन है। इसलिए जैन विद्या के अध्येताओं का यह दायित्व है कि वे जैन विद्या के अपने अध्ययन को एकांगी नहीं बनायें। उन्हें इस बात की गम्भीरता से खोज करनी होगी कि जैन धर्म पर दर्शन, साहित्य और कला के क्षेत्र में अन्य परम्पराओं का कितना प्रभाव है। उन्होंने अपनी सहवर्ती परम्पराओं से कितना लिया है और उनमें उनका प्रदान क्या है? भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराओं के बीच हुए आदान-प्रदान को स्पष्ट करना शोध अध्येताओं प्राथमिक दायित्व है।
यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक धाराओं में धर्म, दर्शन, कलापक्ष आदि को लेकर स्वतन्त्र अध्ययन तो अनेक हुए हैं, किन्तु तुलनात्मक अध्ययन कम ही हुए हैं और जो हुए भी हैं उनमें भी अधिकांश पक्षाग्रह से पीड़ित हैं। उनमें इनकी पारस्परिक प्रभावशीलता और अन्तःसम्बन्धों को तटस्थ और निर्भीक रूप से रखने के प्रयत्न तो अत्यन्त ही विरल हैं। उदाहरण के लिए जैन परम्परा में लोक पुरुष की कल्पना है। जैन चिन्तकों ने उसे गहराई से स्पष्ट भी किया है, किन्तु किसी ने यह नहीं बताया कि यह ऋग्वेद की लोक पुरुष की कल्पना अथवा भागवत की लोक पुरुष की कल्पना से किस प्रकार प्रभावित है और किस प्रकार भिन्न है? पुन: यह अवधारणा जैन परम्परा में कब और किस ग्रन्थ में प्रथम बार आई है? आगमों में ग्रैवेयक देव लोक को ग्रीवा स्थानीय माना तो गया फिर भी स्पष्ट रूप से लोक पुरुष की कल्पना उनमें नहीं है। जबकि जैनकला के क्षेत्र में लोक पुरुष का यह अंकन अत्यन्त प्रिय रहा है। साहित्यिक स्रोतों में लोक पुरुष की यह कल्पना लोकप्रकाश के पूर्व प्राचीन जैन ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलती है। इसी प्रकार स्वर्ग, नरक, तिर्यक, जम्बूद्वीप आदि की कल्पनाओं में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में कहीं समरूपता और कहीं वैभिन्य भी है अत: इनका तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है।
पुन: तुलनात्मक अध्ययन का अर्थ इतना ही नहीं है कि दोनों परम्पराओं की मान्यताओं को पृथक्-पृथक् रूप से प्रस्तुत कर दिया जाये अपितु अध्येता का यह भी दायित्व है कि वह पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर उन्हें ऐतिहासिक क्रम में रखकर यह स्पष्ट करे कि किसने किससे लिया है और किस प्रकार उसमें परिवर्तन किया है।
जैन दर्शन के ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसको और उसकी टीकाओं को लेकर अनेक अध्ययन हुए हैं और शोधग्रन्थ भी लिखे गये किन्तु पं० सुखलाल जी के एक अपवाद को छोड़कर किसी जैन विद्वान् ने इस तथ्य को उजागर
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