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________________ जाने वाली नरबली आदि को क्रूरकर्म और ऐसे शास्त्र को क्रूरशास्त्र कहकर अपने अहिंसक जैन दृष्टिकोण का पोषण भी किया है। इसी प्रकार उन्होंने भोगवादी जीवनदृष्टि की भी समालोचना की है। एक प्रसङ्ग में रामचन्द्रसूरि ने कामदेव की स्तुति के ब्याज से भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और चन्द्र को कामदेव के वशीभूत होकर दुर्यश (अकीर्ति) का भागी होना दिखाया हैजनमहितमहिमां विष्णु-शम्भु-स्वयम्भू हरि-हय-हिमधाम्नां दुर्यशोनाट्यबीजम् । हे कामदेव! आप तो लोकविश्रुत महिमा वाले भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और चन्द्रदेव के दुर्यश के प्रसार के कारणभूत हैं। कृति के प्रारम्भ में भी ब्रह्मा जी को कामवृत्ति का चित्रण करते हुए लिखते हैंएतां निसर्गसुभगां विरचय्य वेधाः शङ्के स्वयं स भगवानभिलाषुकोऽभूत् । ऐसा प्रतीत होता है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा इस निसर्गसुन्दरी की रचना करके स्वयं इसमें अनुरक्त हो गए। इन संकेतों से यह स्पष्ट है कि आचार्य गमचन्द्रसूरि निवृत्तिमार्गी ब्रह्मचर्यमूलक जैन जीवनदृष्टि को प्रधानता देते हैं। यद्यपि रामचन्द्रसूरि के कौमुदीमित्रानन्द में प्रसङ्गानुकूल नारी के शारीरिक सौन्दर्य का चित्रण हुआ है, उसमें शृङ्गार की झलक भी दिखाई देती है। फिर भी, प्रस्तुत कृति में उन्होंने कहीं भी मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं किया है। शृङ्गार के उनके सारे वर्णन संयत और जैन श्रमण की मर्यादा के अनुकूल हैं। नायिका कौमुदी के पति के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं नायक मित्रानन्द की सच्चरित्रता, धर्मभीरुता और कर्तव्यनिष्ठा आदि ऐसे गुण हैं- जिससे यह सिद्ध हो जाता है रामचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कृति में जैन जीवन-मूल्यों के प्रति पूर्ण निष्ठा अभिव्यक्त की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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