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________________ ज्ञातव्य है श्वेताम्बर परम्परा में तित्थोगाली पइण्णा एवं चूर्णिकाल तक भद्रबाहु के जीवनवृत्त में उनका पूर्वधर होना, द्वादशवर्षीय दुष्काल के पश्चात् पाटलिपुत्र में हुई प्रथम आगम वाचना, उसमें भद्रबाहु की अनुपस्थिति, संघ द्वारा पूर्वो की वाचना देने का अनुरोध, वृद्धावस्था एवं महाप्राण ध्यान साधना में व्यस्तता के कारण भद्रबाहु द्वारा अपनी असमर्थता या अन्यमनस्कता व्यक्त करना, संघ द्वारा सम्भोग विच्छेद की स्थिति देखकर संघ का अनुरोध स्वीकार कर स्थूलिभद्र आदि को वाचना देना, स्थूलभद्र द्वारा सिंह रूप बनाकर विद्या का प्रदर्शन करना, भद्रबाहु द्वारा आगे वाचना देने से इंकार, विशेष अनुरोध पर मात्र मूल की वाचना देना आदि घटनायें वर्णित हैं। वहीं नन्दराज द्वारा मंत्री शकडाल के साथ दुर्व्यवहार, स्थूलभद्र से वैराग्य प्राप्त कर दीक्षित होना आदि घटनायें उल्लेखित हैं। ४२ किन्तु इनमें कहीं भी वराहमिहिर का उल्लेख नहीं है। 'गच्छाचार पइन्ना' की दोघट्टीवृत्ति से लेकर प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोश आदि के भद्रबाहुचरित्र में मात्र वराहमिहिर सम्बन्धी कथानक ही वर्णित है। किन्तु ज्ञातव्य है कि ये सभी रचनायें ईसा की ११वीं शती के बाद की हैं। इनमें भद्रबाहु के साथ वराहमिहिर का दीक्षित होना, फिर श्रमण पर्याय का त्याग करके अपने द्वारा १२ वर्ष तक सूर्य विमान में रहकर ज्योतिष चक्र की जानकारी प्राप्त करने का मिथ्या प्रवाद फैलाना, राजपुरोहित बन जाना, वराहमिहिर को पुत्र की प्राप्ति होना, उस पुत्र के दीर्घजीवी होने की भविष्य करना, इसी समय उस पुत्र के बारे में भद्रबाह द्वारा बिल्ली के योग से उसकी सात दिन में मृत्यु होने की भविष्यवाणी करने और भद्रबाहु की भविष्यवाणी सत्यसिद्ध होने के उल्लेख हैं। इन प्रबन्धों में द्वारा इन्हें चतुर्दश पूर्वधर और नियुक्ति का कर्ता भी कहा गया है। इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर स्रोतों में श्रुतकेवली भद्रबाहु और नैमित्तिक भद्रबाहु के कथानकों को मिला दिया गया है। मात्र यही नहीं, इन दोनों के मध्य में हुए आर्यभद्रगुप्त और गौतमगोत्रीय आर्यभद्र नामक आचार्यों के कथानक एवं कृतित्व भी इनमें घुल मिल गये हैं जिनकी सम्यग् समीक्षा करके उनका विश्लेषण करना अपेक्षित है। आचार्य भद्रबाहु का कृतित्व जहाँ तक श्रुतकेवली भद्रबाहु की कृतियों का प्रश्न है उनको दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार नामक छेदसूत्रों का कर्ता माना गया है। ४३ दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति और अन्य स्रोतों से इसकी पुष्टि होती है। कुछ लोगों ने इन्हें निशीथ का कर्ता भी माना है। इस सम्बन्ध में मेरा चिन्तन यह है कि न केवल निशीथ अपितु सम्पूर्ण आचारचूला–जिसका एक भाग निशीथ रहा है उसके कर्ता भी श्रुतकेवली भद्रबाहु हैं। क्योंकि उस काल तक निशीथ आचार चूला का ही एक भाग था और उससे उसका पृथक्करण नहीं हुआ था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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