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________________ जिनचन्द्र का उल्लेख किया वहाँ अन्य सभी ने स्थूलवृद्ध के शिष्यों का उल्लेख किया। (५) जहाँ देवसेन ने श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति विक्रम संवत् १३६ अर्थात् वीर निर्वाण सं० ६०६ में मानी वहाँ अन्यों ने उसे श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़कर उसे वीर निर्वाण संवत् १६२ के पूर्व माना। (६) भावसेन ने चन्द्रगुप्त के मुनि होने का कोई उल्लेख नहीं किया, जबकि अन्यों ने उनके मुनि होने का उल्लेख किया है। किन्तु रइधू ने इसे चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) के स्थान पर उसके पौत्र अशोक का भी पौत्र निरूपित किया है जबकि कालिक दृष्टि से श्रुतकेवली भद्रबाह और इस अशोक के पौत्र चन्द्रगुप्त में कोई संगति नहीं है। पुन: अशोक के पौत्र का नाम चन्द्रगुप्त था इसकी ऐतिहासिक आधार पर कोई पुष्टि नहीं होती है। (७) इसी प्रकार श्वेताम्बरों के उत्पत्ति से सम्बन्धित घटनाक्रम में प्रत्येक लेखक ने अपनी स्वैर कल्पना का प्रयोग किया है अत: उनमें भी अनेक विप्रतिपत्तियाँ दिखाई देती हैं, जिनके संकेत पूर्व में किये गये हैं। (८) भद्रबाह के स्वर्गवास स्थल के सम्बन्ध में भी इन कथानकों में मतभेद है। किसी ने उसे भाद्रपद देश माना तो किसी ने दक्षिणापथ की गुहाटवी माना है। आश्चर्य है कि १६वीं शती में हुए रत्ननंदी तक किसी ने भी उसे श्रवणबेलगोला नहीं बताया है। इस प्रकार की अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण दिगम्बर परम्परा में प्रचलित भद्रबाहु सम्बन्धी इन कथानकों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। अत: उनमें निहित तथ्यों की ऐतिहासिक दृष्टि से गहन समीक्षा अपेक्षित है। दिगम्बर परम्परा में वर्णित भद्रबाहुचरित्र सम्बन्धी कथानकों में उत्तरभारत के द्वादशवर्षीय दुष्काल, उनके शिष्य विशाखाचार्य के दक्षिण गमन, जिनकल्प और स्थविरकल्प के विभाजन तथा श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों के उद्भव के कथानक ही विस्तार से वर्णित हैं। मेरी दृष्टि में इन सबमें सत्यांश इतना ही है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय मगध में दुष्काल अथवा राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति रही है। फलत: उनकी शिष्य परम्परा ने दक्षिण में प्रवास किया हो- यह भी सत्य है कि हलसी (धारवाड़) के पाँचवी शती के अभिलेखों में श्वेतपट्ट, यापनीय, कूर्चक एवं निर्ग्रन्थ सम्प्रदायों के जो उल्लेख हैं उनमें निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय सम्भवतः श्रुतकेवली भद्रबाहु की शिष्य परम्परा से सम्बन्धित रहा है।३८ जबकि यापनीय सम्प्रदाय जो क्रमशः भद्रान्वय (तीसरी शती) एवं मूलसंघ (चतुर्थ शती) के नामों से अभिहित होता हुआ हलसी (पाँचवी शती) में यापनीय सम्प्रदाय के नाम से ही अभिहित हुआ९- उसका सम्बन्ध भी भद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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